हिंदुस्तानी-प्रचार सभा १६३ उनके कवि कर्म को नीचा ठहराए ? आप कहेंगे, मौलाना शिवली तो आज रहे नहीं फिर हिंदुस्तानी के प्रचार के प्रसंग में अाज उनका नाम क्यों लिया जाता है। ठीक है, पर आज रेडियो में, हिंदुस्तान की हिंदुस्तानी में रामराज्य का विरोध क्यों क्या महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी में कहीं रामराज्य है ? क्या उनकी हिंदुस्तानी में भारत के अतीत पुरुषों का भी कोई स्थान है ? क्या अतीत को छोड़कर हिंदुस्तानी पनप सकती है ? कहते हैं हिंदी नहीं हिंदुस्तानी । कारण ? हिंड़ी हिंदी जो बन गई है ? तो क्या आप हिंदी नहीं बनना चाहते ? कहते हैं हम मुसलमान हैं । 'मुसलिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा ।' अच्छा, यही सही पर सच तो कहें सारे जहाँ के मुसलमान भी यही कहते हैं ? महात्मा गांधी इस पर ध्यान नहीं देते वस चाहते हैं स्वराज्य । किसके लिये, कह नहीं सकते, पर नाम सदा लेते हैं जनता का। क्यों ? इसके सिवा कुछ और कर भी तो नहीं सकते ? जनता को जनता ही क्यों नहीं रहने दिया जाता है ? उसे हिंदू वा मुसलमान क्यों बनाया जाता है ? क्या इसके बिना किसी देश का काम ही नहीं चल सकता ? और यदि यही न्याय है तो ईसाई क्यों नहीं पारसी भी तो यहीं वसते हैं ? बसें पर उन्हें पूछता कोई क्यों हैं ? मतलब के साथी सब हैं। पर महात्मा गांधी को भूलना न होगा कि देश का उद्धार देशभावना को लेकर ही खड़ा हो सकता है कुछ किसी ऊपरी समझौता को लेकर नहीं। यदि मुसलिम को हिंदी होने का अभिमान नहीं तो फिर हिंदी से उसका मेल नहीं और हिंदू को तो यह सह नहीं सकता, क्योंकि वह उसका प्रतिद्वंद्वी शब्द है। कहने को कोई कुछ कहे पर परि- णाम प्रतिदिन प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। कहा जा सकता
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