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पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२२८

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२१८ राष्ट्रभाषा पर विचार अस्तु, कहा गया था कि गवारू बोली नहीं; शिष्टभाषा को जगह दी जाय, पर उसका अर्थ लगाया गया कि कभी जनता की बाणी को जगह न मिले। कचहरिया बाबुओं की दृष्टि में उर्दू के सिवा शिष्ट हो ही कौन सकता है कि उसकी भाषा को प्रमाण माना जाय ! नतीजा यह निकला कि अभी तक इस प्रांत की सरकारी हिंदुस्तानी भाषा बिगड़ी फारसी अथवा दरबारी उर्दू ही रह गई । वह दिल्ली के कुलीन मुसलमानों की जबान भी न वन सको। विहार आदि प्रांतों में जहाँ हिंदी को जगह मिली, वहाँ से भी यह गड़बड़झाला दूर नहीं हुआ, किसी न किसी रूप में चलता ही रहा, और आज तो न जाने कहाँ से बल पाकर और भी उभर श्राया है। खैर, कुछ भी हो; कहना तो यह है कि सरकार ने उर्दू को वसाकर जनता को उजाड़ दिया और पढ़े लिखे सच्चे नाग- रिकों को भी पका जपाट बना दिया। कचहरियों के शिकस्त कागदों ने किसको परास्त नहीं किया ! स्वयं सरकार को भी ! दीवानी और बोर्ड की आज्ञाएँ निकलती और रद्दीखाने की टोकरी की शोभा बढ़ाती रहीं। कचहरी में उर्दू का जाल बिछा तो जनता कागज पढ़ने के लिये, उर्दू के पीछे पड़ गई। चारों ओर उर्दू के मदरसे खुलने लगे और गवारू हिंदी को गाँवों से भी विदाई मिलने लगी। जिसके हृदय में राष्ट्र की भावना काम कर रही थी और जो निरीह जनता की बोली को समझता था वह यह कपटलीला कहाँ तक देख सकता था। निदान राजा शिवप्रसाद सितारहिंद मैदान में आए और कचहरिचों में हिंदी का प्रचार करना चाहा ! चाहते वस्तुतः वे सरल उर्दू ही थे, पर प्रचार नागरी लिपि का करना चाहते थे, जिससे व्यथित होकर सर सैयद अहमद खाँ बहादुर ने खतरे की घंटी बजाई, जो आज कयामत के मुंह से