व्यवहार में हिंदी नागरी को स्थान मिला तो सही, पर कर्मचारियों के साथ जो उदारता का व्यवहार किया गया वह हिंदी के लिये घातक होता रहा । कभी किसी हाकिम की शिकायत सरकार के पास पहुँचती थी तो कभी किसी अहलमद की। सरकार भी अपने कर्तव्य की इति इसी में समझ लेती थी कि उक्त हाकिम अथवा अहलमद को सचेत कर दिया जाय कि भविष्य में वह ऐसा न करे। सरकार की इसी ढिलाई का यह परिणाम है कि आज तक कचहरियों और दफ्तरों में हिंदी को उचित स्थान न मिला और आये दिन इस बात पर विवाद होता रहता है कि हिंदी को कहाँ तक सरकारी काम-काजों में महत्त्व दिया जाय । समय-समय पर सरकार की ओर से युक्तप्रांत की भाषा के विश्य में जो विज्ञप्तियाँ निकलती रही हैं उनका विवरण देना व्य होगा। संक्षेप में यहाँ इतना जान लीजिए कि ६ फरवरी सन् १९३३ ई० को कासिल ने यह प्रस्ताव मान लिया कि हाकिम को अधिकार है कि वह कचहरी अथवा अदालत की कार्रवाई चाहे जिस भाषा में करे। वह देवनागरी और उर्दू में से किसी भी लिपि का व्यवहार कर सकता है। पर साथ ही उसने यह भी प्रस्ताव किया कि किसी भी देश-भाषा के कागद की नकल उत्ती लिपि में दी जायगी जिसमें कि लेनेवाला चाहता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि कौसिल ने भी हिंदी और उर्दू को बराबर का स्थान दिया । कौंसिल का उक्त प्रस्ताब अपने शुद्ध रूप में यह है- "That the Council recommends to the Gor- ernment that the Presiding officers of all courts should be at liberty to write the Proc eedings of courts either in Devanagri or Urdu script as they like,
पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२३३
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