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पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२४०

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२३० राष्ट्रभाषा पर विचार देखते हैं कि 'ब्रज' का अभिमानी जयपुर राज्य आज तक अपने सिक्कों पर नागरी को स्थान न दे सका और दबाव पड़ने पर भी किसी प्रकार सौत की आँख से उसे देखा तब हमारा जी चाहता है कि हम इस प्रसंग में भी कुछ कह ही डालें। माना कि मुगल बादशाहों ने कभी नागरी को अपने सिक्कों पर स्थान नहीं दिया और उदार अकबर ने सूरियों की इस प्रथा को तोड़ ही डाला। किंतु तो भी कहने और दिखाने को शाहआलम का वह 'एक पाई सीका' तो है ही जो बनारस प्रांत के लिये उसकी ओर से अंग- रेजी कंपनी सरकार के द्वारा ढला था और जिस पर 'त्रिशूल' के साथ ही एक पाई सीका' भी नागरी में ढला था। विवरण के लिये इस जन का एक पाई सीका' शीर्षक लेख देखा जा सकता है। वह भाषा का प्रश्न' में नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित भी हो चुका है। अतः उसकी चर्चा यहाँ इतनी ही अलं है और यह बताती है कि 'हाँ' जयपुर को अवश्य ही समय के साथ चलना था और अपनी मुगली आन को छोड़कर कुछ प्रजा की कानि पर भी ध्यान देना था, हो सकता है, उसको 'मिरजा' और 'सवाई' का अभिमान हो, और वही उसको 'नागरी' से रोकता भी हो। तो कहना है कि देखो प्यारे ! बात भी ऐसी नहीं है । कहों का कोई 'मिरजा' और 'सवाई' नागरी में अपना सिक्का चला रहा है और उस पर ढला रहा है 'श्री खंगारजी सवाई बहादुर महाराजाधिराज मिरजामहाराउ'। कीजियेगा क्या ? कच्छभुज के शासकों ने 'मिरजा' और 'सवाई' की आन को भी ले लिया और 'नागरी का उपयोग कर प्रजा का मान भी रख लिया; पर आप तो बस 'पराये पानि पर बाज ही बने रहे' अपने पक्ष का ही शिकार करते रहे। हाँ, ग्वालियर के शासकों में भी अभिमान की मात्रा न्यून