देशी सिक्कों पर नागरी को घटाना इष्ट नहीं समझते। उनकी दृष्टि में इससे उसका प्रसाद अढ़ेगा ही ! कारण कि मुगल बादशाहों ने संस्कृत का सदा सत्कार किया है और कभी उसके विनाश का भान नहीं दिखाया। अस्तु, यह लिका इस दृष्टि से बड़े ही महत्त्व का है और आज से १४० वर्ष पहले की भावना को व्यक्त करता है। और, एक ही बात और रह गई: बड़े महत्त्व की बात ! रजवाड़ों में उदयपुर' की आन कुछ और रही है। उसके सिक्के में भी यही बात है। 'मुगल' से उसकी उनी तो ठनी ही रही, पर अंगरेज से ऐसा कुछ मेल हुअा कि उसका हृदय पिघल गया और उसने अपनी मुद्रापर दोस्तिलंघन' का विधान किया। उसके रुपये पर एक ओर 'चित्रमूट उयपुर' और दूसरी ओर लिखा गया 'दोस्तिलंधन । चित्रकूट' एवं 'उदयपुर के प्रति हृदय में, हमारे हृदय में, जो भाव है वह कागद पर नहीं उतर सकता } 'राम- राज्य' 'जौहर' और 'राजपूत दर्प' की आज कितनी आवश्यकता है, कौन नहीं जानता ? परंतु आज की जो परिस्थिति है वह बहुत कुछ ‘दोस्तिलंघन' में वसी है। बोलती नहीं पर बोलना चाहती है। अवश्य सुनिए । कहिए, क्या सुना ? यहाँ न कि इस स्वाधीनता के युग में भी लंदन' से मित्रता रखने की आव- श्यकता है हम कह नहीं सकते, पर कहना अवश्य चाहते हैं कि जैसे-तैसे गिरी से भी गिरी दशा में चित्रकूट' हमारे जीवन को सहारा और 'उदयपुर' हमारे प्रताप का अड्डा रहा है । तो कोई कारण नहीं कि इस अवसर पर भी उससे जीवन और दर्प की कुछ प्रेरणा न मिले। जो हो अभी तो दोस्तिलंघन' के साथ ही इस लेख को समाप्त करते हैं। फिर कभी उचित अवसर हाथ लगने पर इसकी मीमांसा भी हो लेगी। ---
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