हिंदुस्थानी का भँवजाल २४१ सदा बादशाह और बादशाहजादों की ही चीज़ है और फलतः उसकी 'टकसाल' भी है किला' ही। वही 'निला' जिस पर श्रासफजादी झंडा फहराने का स्वप्न कोई उर्दू का लाडला और हैदराबादी नव्याव का प्यारा कोई रिजवी' देख रहा है। और क्यों ? इसी से तो कि वहाँ 'उर्दू' का बोलबाला और विलायत का पहरा है। और साथ ही आपके देश में भी कोई देशप्रेम आपसे किसी अंदाज और अदा से कह रहा है- "हमें शिकवह' अपनों से होना चाहिए। पाकिस्तान वालों से क्या माज़ उनका जी चाहे अरबी में बात करें या संस्कृत में | हम अपने घर में देखते हैं कि लोगों को पंद्रह सौ बरस पहले बाले अलफ़ाज़ से भूलू मैं मैं करनी पड़ती है और वेचारे परेशान हैं । याने- (१) अँगरेज़ी के वह लफ़ज़ जो एक देहाती से लेकर कौंसिल के मंत्रियों तक को मालूम है इस बिना पर खारिज हो रहे कि वह विदेसी हैं। (२) फारसी-आरबी के लफ़्ज़ जो इसी तरह हर आदमी जानता है, इस बिना पर निकाले जा रहे हैं कि वह ईरानी और अरबी हैं था मुसलमान में रायज हैं। हम पूछते हैं संस्कृत भी तो वस्त२ एशिया से श्राई है ? अब अगर फ़ारसी 'अंगुस्त' को श्रार संस्कृत 'अंगुष्ठ' कहें तो फ़र्क बहुत कम है। मगर फ़ारसी लफ़्ज़ ज्यादह मशहूर चुका है। इसी तरह नोटिस', मुद्दई मुद्दालय' कौन नहीं जानता ? श्राप उनकी जगह 'विज्ञापन', 'वादी' और 'प्रतिवादी' रखकर बेचारे देहा- तियों को ख्वाहमख्वाह परेशान ही तो कर रहे हैं ?" (जमानः, जुलाई सन् १६४८ ई०, कानपुर, पृष्ठ २५-६ )
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