हिंदुस्थानी का भँवजात न पूछिए । वह हिंदी नहीं नहीं 'महात्मा' को जानता और उनको नहीं उनके चर को पहिचानता है। वह चाहता तो हिंदुस्थानी' याने 'हिंदी' का है, पर जान नहीं पाता कि उसकी 'हिंदुस्थानी' का संकेत हो गया है हिंदुस्तानी' याने उर्दू । लोग झिड़क कर कह बैठते हैं--नाम में धरा ही क्या है जो इसके लिये मर रहे हो ? निवेदन है--कुछ नहीं और सब कुछ। अापके लिये 'कुछ नहीं है तो नाम का आग्रह छोड़ दीजिए । व्यर्थ रार न बढ़ाइए । हम तो छोड़ नहीं सकते। हमारे लिये तो वह 'सथ कुद्ध' है न ? और यदि नहीं छोड़ते हैं तो श्रीमुख से आप ही कहें । हम आपको क्या समझे ? चिंतक वा वंचक ? पहला इष्ट नहीं, दूसरा मान्य नहीं। यही असमंजस है और यही हैरानी । तो भी, आज भी, इस विषम परिस्थिति में भी, कहीं से आशा की किरण फूटती दिखाई देती और उल्लास भरी दृष्टि से रह रह कर संकेत करती और मूकवाणी में कहती रहती है जो- मौलवी वहींदउद्दीन साहब सलीम पानीपती ने अपनी किताब 'वज़ा इसतलाहात 'इल्मिया' में 'फरहंग आसमिया' का हवाला देकर लिखा है कि उर्दू ज़बान में खालिस अरबी-फारसी अलमान की तादाद बक़दर के है। सवाल यह पैदा होता है कि अरब और ईरान की जबानों में भी हमारे हिंदुस्तान के अलफाज मौजूद हैं या नहीं? और अगर नहीं हैं तो हमें भी उनका बायकाट करने का हक है । जब कमाल अतातुर्क अरबी रस्मुल्खत से नजात हासिल करने के बाद भी मुसलमान बाकी रह सकते हैं तो हम हिंदुस्तानी मी हिंदी देवनागरी रस्मुल्खत एखतयार करके क्यों मुसलमान वाकी न रहेंगे? रत्तुल्खत बदलने से न मज़हब बदल जाता है और न तमदुन मत्खर हो जाता १-मुक्ति प्राप्त । २-भ्रट ।
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