२६० राष्ट्रभाषा पर विचार मुसलमानों की है तो आज किस न्याय उन पर ईरान और मध्य एशिया की तहज़ीब' लादी जा रही है ? क्या वही वास्तव में मुसलिम तहजीब है ? अच्छा, इसे भी छोड़िए और देखिए यह कि यहाँ की सभी देशभाषाएँ इसी 'हजार बरस' के भीतर की बनी हैं या नहीं ? फिर उनकी उपेक्षा क्यों की जा रही है ? क्या मौलाना 'आज़ाद' जैसा सुशील, सुशिष्ट और उदार मुसल- मान इतना भी नहीं देख सकता कि देश के मुसलमान देशभाषा का व्यवहार करते हैं और सभी देशभाषाओं का गत १००० वर्ष का इतिहास प्रायः एक सा ही रहा है। यदि कहीं कोई अपवाद हुआ है तो केवल उस भाषा में जिसे उर्दू कहते हैं । और उसका कारण यह रहा कि यह उसी 'ईरान और वस्त एशिया' का ख्वाब लेकर उठी है जिसका सफल होना उक्त मौलाना को संभव नहीं दिखाई देता। परंतु, आज तो उसका ख्वाब सफल रहा। वह पाकिस्तान के रूप में अपनी मुराद पूरी कर रहा है। रही हिंदू या हिंदुस्तान की बात। तो उससे भी यही कहा जा रहा है कि वह इसी हिंदुस्तानी या उर्दू की पैरवी करे । मुसलमान इसके बिना मिल नहीं सकते और मुसलमान के मेल के बिना उसका जीना कठिन है। हो, परंतु हमारा कहना तो यह है कि हम न तो उस उर्दू को चाहते हैं जो ईरान-तूरान का आदाब बजा लाती है और न उस हिंदुस्तानी को चाहते हैं जो उर्दू से रत्ती भर भी बाहर जाना नहीं चाहती। नहीं, हम तो केवल उस भाषा को चाहते हैं जो सदा से 'भाषा' रूप में चली आती है और इसलाम में भी जो हिंदी के नाम से ख्यात रही है। मौलाना अबुलकलाम 'आज़ाद' की आजादी का हमें भरोसा है और हम चाहते हैं कि कृपा कर वे एक एक बार अपनी दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार कर लें और यह भी जान लें
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