२६४ राष्ट्रभाषा पर विचार उन्होंने ठोस अरबी अलफाज़ इस्तेमाल करने की रस्म डाली । मसलन् 'लीडर' की जगह 'जश्रीम' और 'वाइरलेस' की जगह 'लासलकी'। 'अलहिलाल' और 'अलबलाग़ की ग्राम सुरखियाँ ही ऐसी होती थीं जिन्हें थोड़ी बहुत अरबी जाने वगैर समझना मुशकिल था। मसलन् 'मुज़ाकरः इल्मियः' 'शऊन स्लामियः' 'श्रसश्रलः व अजवबतहा' वगैरह। मौलाना अबुल कलाम अाजाद की इस तज़ तहरीर को मौलाना ज़फर अली खाँ ने पंजाब में रायज किया, और आहिस्ता- आहिस्ता ऐसी उर्दू लिखने का फैशन हो गया जिसे अरबीदान मुस- लमानों के सिवा कोई नहीं समझ सकता था और उर्दू फकत मुसल- मानों की ज़बान हो कर रह गई। ( मौज कौसर, मरकंटाइल प्रेस, लाहौर, सन् १९४० ई०, पृ० १६५) शेख मुहम्मद एकराम साहब ने जो कुछ लिखा है समझा कर लिखा है और यह प्रत्यक्ष दिखा दिया है कि क्यों मौलाना अबुल कलाम आजाद' की उर्दू सिर्फ अरबी पढ़े-लिखे मुसलमान की जवान होकर रह गई है। मौलाना 'आज़ाद' की जन्मभाषा अरबी है और अरबी में ही उनका कंठ फूटा है। अरबी की गोद में पले, अरबी में ही बचपन बीता और अरबी में ही शिक्षा-दीक्षा | निदान उनकी ओर से ऐसा हो जाना कोई अजीब काम नहीं हुआ। परंतु सबसे बढ़कर अचरज की बात तो यह हुई कि जहाँ उर्दू के लोग मौलाना 'आज़ाद' की वाणी को इस रूप में ग्रहण करते रहे वहीं हमारे काँगरेस के प्राणी उसी को सच्ची हिंदुस्तानी मानते रहे और फलतः काँगरेस की बानी भी अरबी बन चली। संदेह नहीं कि मौलाना 'आज़ाद' ने नेताओं को जैसा अरबी भक्त बनाया वैसा जिन्ना या लीग ने नहीं। महात्मा गांधी की पुकार में मौलाना 'आज़ाद' की प्रेरणा कितनी रहती है, इसे
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