२९६ राष्ट्रभाषा पर विचार हाँ, बात भी यही है। उर्दू 'बादशाही दरबारों और शाही महलों की चीज है और इसी से उन्हीं के साथ रहना भी चाहिए ! दिल्ली दरबार की ओर से अगरेज हिंद में आये और अंत में दरबारी लोगों को पाकिस्तान देकर चले भी गये। अब उर्दू का स्थान भी पाकिस्तान ही रहा, कदापि नहीं। अत: कांगरेस के लोगों को सचेत हो जाना चाहिए और सावधान होकर सोचना चाहिए कि भारत के भाग्य का निबटारा 'दरबार' की ओर से कर रहे हैं या घरवार की ओर से । यदि सचमुच उन्हें इस बात का अभिमान है कि उनकी वाणी राष्ट्र की वाणी है और उनकी बोली समाज की बोली तो झट उस वाणी और उस बोली को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन कर दें जो न जाने कितने दिनों से सबकी न सही, बहुतों की राष्ट्रवाणी रही है और उस लिखावट में लिखी भी जा रही है जो सबकी नहीं तो बहुतों की लिपि अवश्य है। अरे! इसी को और भी खुलकर क्यों न कह दिया जाय कि हमारी परंपरागत राष्ट्रवाणी के पारखी वास्तव में न तो महात्मा सुंदरलाल हैं और न मौलाना अबुलकलाम 'आज़ाद' ही। हमें अभिमान दोनों का है, पर हम दोनों ही से स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि कुछ हमारी भी सुनें और केवल इसलिये सुने कि आप हमारी सुनना चाहते हैं। निदान हमारा कहना है कि न तो हम आपकी हिंदुस्तानी को जानते हैं और न आपकी अरबी-फारसी को। इसलिये हम पर रहम कीजिए और हमको अपनी बोली-बानी में लिखने-पढ़ने दीजिए। यदि हमारी बानी में राम-रहीम की एकता नहीं तो आपकी ईजाद में पाकिस्तान तो अवश्य है। बस, हो चुका । अब और उसकी चाट नहीं। बस, अब तो अपनी हाट और अपनी बाट। काट किसी की नहीं।
पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३०६
दिखावट