३१६ राष्ट्रभाषा पर विचार है। आर्यभाषा और द्रविड़भाषा का अध्ययन जिन ढंग से विश्वविद्यालय में किया जाने लगा उसका परिणाम कुछ और हो भी कैसे सकता था ? हुआ भी वही जो होना था। आज उसी के कारण 'द्रविड़ का वह संस्कार बना जो यहाँ इसके पहले कभी नहीं बना था । वास्तव में देखा जाय तो 'आर्य' और 'द्रविड़' का यह रक्त-संबंधी विभाजन सर्वथा नवीन है और यहाँ की किसी परम्परा से मेल नहीं खाता। सच तो यह है कि अगरेजी शिक्षा का कुप्रभाव हम पर इतना गहरा पड़ा कि हम अपने आपको भूल गये और हमारी अपनी दृष्टि भी अँगरेज की आँख से देखने लगी। 'आर्य', 'धर्म', 'संप्रदाय' आदि सभी हमारे अच्छे और भले शब्द मानो कान में कोड़ा बरसाने लगे और हमारे राष्ट्र- जीवन में राजयक्ष्मा के कीटाणु समझे जाने लगे। परिणाम प्रत्यक्ष है। उपाय ओभल ! रोध का उपाय उपाय है और ऐसा उपाय है कि उसी से अपना उदय और विश्व का मंगल होगा। हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि तुम विकृति से बचो और प्रकृति की परख कर आगे बढ़ो । यही कारण है कि हमारे वाङ्मय में 'उत्तर' और 'दक्षिण' का भेद तो है पर 'आर्य' और द्रविड़ किंवा ब्राह्मण और अब्राह्मण का नहीं। 'ब्रह्मण्य और 'श्रब्रह्मण्य' का रहस्य कुछ और ही है। वह बहुत कुछ 'आस्तिक' और 'नास्तिक' के ढङ्ग का है और दक्षिण भारत तो 'सुब्रह्मण्य' को आज भी खूब अपनाता है। हाँ तो कहना यह था कि जिस प्रकृति ने बौद्धों में उत्तर-दक्षिण का भेद किया उसी ने वैष्णवों में भी। एक ही संप्रदाय के भीतर जो वेदपाठ और संतपाठ को लेकर उत्तर-दक्षिण का भेद खड़ा हो गया उसका
पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२६
दिखावट