राष्ट्रभाषा पर विचार कहीं कुछ अपनी लिपि में भले ही लख जाय पर शासन सर्वत्र अभी लार्ड कर्जन का ही है। श्राप के गमनमान से उस भूमि का भाग्य नहीं जगता। नहीं, वह तो तब जगेगा ,, जब आप का जन-संपर्क होगा। दक्षिण भारत में अब भी बहुत कुछ सुरक्षित है। वहाँ के मंदिर अध्ययन के आगार हैं। उसमें बहुत कुछ भरा है। तंजोर के मंदिर की चित्रकला का उद्धार हो रहा है। उद्धारक ने बड़े ही मर्मभरे शब्दों में कहा कि उत्तर भारत से 'सांस्कृतिक शिष्ट मंडल' भी आना चाहिए। दुःख होता है यह देखकर कि अपने घर में ही अपनों से ही यह माँग ! क्या इससे भी अधिक पतन हमारा हो सकता है ? हमसे कहीं अधिक साधु हैं भारत के वे अनपढ़ सपूत जो पेट काट कर पैसा जुटाते और भाँति भाँति की यातना सह 'चारोंधाम' 'सप्तपुरी' के ब्याज से, समस्त भारत की मिट्टी छान आते हैं। और वाणी से सही अपने आचरण से सर्वत्र अपना तादात्म्य स्थापित कर पाते हैं। स्वतंत्र भारत के सुशिक्षित स्वराज्य में क्या करेंगे, यही देखना है। सरकार से निवेदन बहुत हो चुका, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। परंतु चलते चलते कुछ योजना-योनि सरकार से भी कह देना ठीक होगा क्योंकि 'द्रविज़िस्तान का कोप उसी पर अधिक है । कहा चाहें तो कह सकते हैं कि उसी के कारण कभी वह हिंदी पर भी प्रकट हो जाता है, अन्यथा हिंदी से कोई उसका विरोध नहीं। दिल्ली से 'तामिल' क्यों भागता है, इसके इतिहास में जाने का यह समय नहीं, पर घड़ी का इतना अनुरोध तो है ही कि कुछ इसकी भी सुना दें। दिल्ली में कहने को मद्राजी भले ही
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