राष्ट्रभाषा पर विचार को न मिले और मिले भी तो किसी विद्या की दृष्टि से नहीं किसी बहाने मात्र से, भला कब यह संभव था ? फलतः विद्यार्थी का बिगुल बजा और 'काशी नागरीप्रचारिणी' की स्थापना हो गई। धीरे धीरे उसकी प्रतिष्टा इतनी बढ़ी कि उसकी बात समर्थ कान से सुनी गई और जनमत के प्रसाद से जनवाणी नागरी हिंदी का सत्कार हुआ। सब के सहयोग नहीं तो बहुतों के उद्योग से भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी घोषित हुई। राष्ट्र ने राष्ट्रभाषा के व्यवहार का ब्रत लिया और सोचा कि पंद्रह वर्ष के भीतर वह भी अपनी राष्ट्रभाषा का जौहर विश्व को दिखा सकेगा। कितने वर्ष में उसने. कितना कार्य किया इसका विचार संताप का कारण हो सकता है, संतोष का विषय नहीं। निदान उसकी चर्चा न कर कहा यह जाता है कि अब इस अवसर पर एकत्र हो कुछ यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए और राष्ट्रभाषा के इस महायज्ञ में कुछ ऐसी आहुति का विधान करना चाहिए जिससे उसके प्रकाश में विश्व का कोना- कोना ही नहीं ब्रह्मांड का कण कण आभासित हो उठे और उसकी प्रशस्त छाया में हमारी सभी देशभाषाएँ चमक उठे। उनकी वृद्धि और समृद्धि भी किसी से पीछे न रहे। हाँ, यज्ञ के अनुष्ठान और आहुति के विधान में हमें धूम का भी सामना करना होगा और अपने संकल्प के फलस्वरूप इसे अंजन के रूप में दिव्य ज्योति का दाता समझा जाएगा। अन्यथा धूमरहित यज्ञ कैसा ? किसी विकार से भयभीत होने की आवश्यकता क्या ? भय है, आशंका है, डर है, सभी कुछ तो है। किस किस का उल्लेख किया जाय १ अभी कुछ होने भी न पाया कि बयार फिर हिंदी के प्रतिकूल बही। उसके बड़े बड़े सरकारी नेता पीछे खस- कने लगे और उर्दू ने फिर उसके घर में जोर मारा। बड़ा तूमार बँध रहा है। हानि लाभ का विचार छोड़ प्रतिष्ठित एवं विख्यात
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