राष्ट्रभाषा में ढीलढाल बिना किसी राष्ट्रभाषा के द्वारा राष्ट्रनिर्माण का कार्य संभव नहीं । नागरी हिंदी का सत्कार इसीसे राष्ट्र में इतना रहा है कि कभी उसके सामने किसी फारसी, उर्दू या हिंदुस्तानी की नहीं बली और न इतना उद्योग होने पर भी उसका स्थान किसी अन्य भाषा को मिला। यहाँ तक कि अंगरेजी का रंग भी बराबर फीका रहा और वह लोकहृदय को न छू सकी। राजा रघुराज सिंह ने इसी व्यापक एकसूत्रता को देखकर इसी से तो कभी (सं० १९२१ वि० के पहले ) स्पष्ट कहा था । हरि को प्रिय अति द्राविड़ भाखा, संमत वेद शास्त्र श्रुति शाखा । द्राविड़ भाषा संतन काहीं, उचित अवशि पढ़िबो जग माहीं । भाव यह कि किसी भी क्षेत्र में इस देश के बाहरी भेदभाव को देखकर उसकी भीतरी भावधारा को भूल जाना ठीक नहीं ! उसकी सची जानकारी और पक्की पहिचान के बिना राष्ट्र का निर्माण कैसा ? निदान हिंदी मंत्रालय की स्वतंत्र और सुव्यवस्थित व्यवस्था केंद्र में होनी ही चाहिए जिसका कार्य हो केवल शासन और व्यवहार को हिंदीमय बना देना ही नहीं अपितु यह देखना भी कि राष्ट्रभाषा के साथ ही सभी देशभाषाओं में परस्पर आदान- प्रदान के द्वारा एक ही भाव का उदय और एक ही हृदय का प्रसार हो रहा है। अँगरेजी की राजनीति से मुक्ति पाने का यही एक सरल और सुबोध उपाय है। कूट शासन के कुप्रभाव के रहते सच्चे राष्ट्र का निर्माण कैसा ? केंद्र के साथ ही सभी राज्यों को अपने अपने ढंग से साहित्य के इस अनुष्ठान में योग देना चाहिए और उत्तम तथा उपयोगी पुस्तकों के पांतर को महत्व दे सभी भाषाओं की प्रगति का परंपराबोध कराना चाहिए। आशय है यह कि वर्तमान के कुसंस्कार से लोकहृदय को मुक्त कर उसे
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