२-राष्ट्रभाषा का स्वरूप राष्ट्रभाषा के स्थान के संबंध में अब तक बहुत कुछ कहा गया है पर उस बहुत कुछ में वह कुछ कहाँ है जो हमारे राष्ट्र- जीवन का ज्योतिस्तंभ अथवा हमारे राष्ट्रहृदय का आदर्श है। किसी भी भाषा के प्रसंग में उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति की उपेक्षा हो नहीं सकती, फिर चाहे वह कोई देशभाषा हो चाहे कोई राष्ट्र- भाषा हो सकता है कि कुछ सज्जन हमारे इस कथन से भरपूर सहमत न हों और भाषा के प्रवाह में उसके स्रोत को उतना महत्त्व न दें जितना कि उसके लक्ष्य को । ठीक है। यही सही। हम भी आज राष्ट्रभाषा की प्रकृति को उतना महत्व नहीं देते जितना कि उसकी प्रवृत्ति को दे रहे हैं। परंतु इसके विषय में भी हमें आप लोगों से कुछ निवेदन कर देना है। इसमें तो तनिक भी संदेह नहीं कि हमारी सच्ची राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसकी प्रवृत्ति राष्ट्र की प्रवृत्ति हो और जो राष्ट्र के साथ सती होने के लिये सदा तैयार रहे। जिस भाषा को राष्ट्र की परंपरा से प्रेम नहीं, जिस भाषा को राष्ट्र के गौरव का ध्यान नहीं, जिस भाषा में राष्ट्र की आत्मा नहीं, वह भाषा राष्ट्र की भाषा क्यों कर कही जा सकती है। किसी भी राष्ट्रभाषा के लिये यह अनिवार्य है कि उसके शब्द-शब्द राष्ट्र-राष्ट्र की पुकार मचाने वाले और अरा- ष्ट्रीय भावों को धर धाने वाले हों। यदि उसके शब्दों में यह राष्ट्रनिष्ठा और यह राष्ट्रशक्ति नहीं तो वह राष्ट्रभाषा तो है ही नहीं और चाहे जो कुछ हो। जो लोग भारत को एक राष्ट्र ही नहीं समझते अथवा भारत
पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४९
दिखावट