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पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५१

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राष्ट्रभाषा कुछ कठिन नहीं है। पहले मौलाना शिबली नोमानी जैसे परम खोजी की बात सुन लीजिए और देखिए तो सही कि उर्दू का रंग क्या है ? वह किस ओर मुड़ी चली जा रही है। उनका विषाद है- इस मौका पर यह नुक्ता खास लेहाज़ के काबिल है कि अगरचे हमारे इंशापरदाज़ों ने संस्कृत और व्रजभाषा के इल्मअदब' के नुक्ता- नुक्ता को समझा और उससे बहुत फायदा उठाया, लेकिन इसके फ़ैज़ से वही महरूम रह गया जो सबसे ज्यादा हफ़दार था । यह ज़ाहिर है कि उर्दू भाषा से निकली और उसके दामन में पली लेकिन भाषा से जो सरमाया उसको मिला, सिर्फ अल्फ़ाज़ थे। मज़ामीन और खयालात से उसका दामन खाली रहा। बखिलाफ इसके अरबी ज़बान, जिसको भाषा से किसी किस्म का तारुफ' न था, वह संस्कृत और भाषा दोनों से मुस्तफ़ोद' हुई । हिंदी भजामीन' और हिंदी खयालात' से विलायती अरवी का दामन तो भर गया पर हिंद की 'मुल्की जबान' यानी घर की उर्दू का दामन उनसे खाली रहा। क्यों ? क्या राष्ट्रनिष्ठा, देशप्रेम अथवा दीन या मजहब के कारण ? नहीं। उर्दू का राष्ट्र या दीन से कोई संबंध नहीं। उसमें हिंदु और इसलाम दोनों की छीछालेदर है। उर्दू का दावा है - मेरा हाल बहरे खुदा देखिए, जरा मेरा नश्वोनुमा देखिए । मैं शाहों की गोदों की पाली हुई, मेरी हाय यो पायमाली१२ हुई। निकाले ज़बाँ फिरती हूँ बावली, खुदाया मैं दिल्ली की थी लाड़ली । १--विद्या-विनय । २-प्रसाद । ३---वंचित । ४--अधिकारी। ५-पूँजी । ६-विषय । ७----विचार । --लगाव । ६--लाभान्वित । १०--लिये, वास्ते । ११---वृद्धि । १२--पादमर्दन ।