पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५५

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राष्ट्रभाषा दख्ल इस फन में न या अजलाफ़' को, क्या बताते थे यह सो असराफर को। थे जो इस च्याम में उस्तादे फ़न, नाकसों से वे न करते थे सखुन । नुक्तापरदाजी से अजलाफों को क्या, शेर से वज़ाज़ो नद्दाफों को क्या | मतलब यह कि उर्दू के आदि के तीनों उस्तादों ने मिलकर उर्दू की जवान को पक्की उर्दू क्या पूरा विलायती बना दिया और फिर उस पर हम हिंदियों का कोई अधिकार नहीं रह गया हममें जो इसलाम के नामलेवा और सच्चे मुसलमान थे उनको भी इसी हिदियत के नाते जबान की सनद न मिली और फलतः उर्दू धीरे धीरे हिंदी को सच्ची सौत समझने लगी। सौत भी कैसी फूहड़ ! 'अँगोछे' और 'धोतियों' पर रीझनेवाली और माँग में सेंदुर लगानेवाली- अंगोछे की अब तुम फबन देखना, खुली धोतियों का चलन देखना। वह सेंदूर बालों में कैसी जुटी, किसी पार्क में या कि सुर्थी कुटी।" इस अप्रिय प्रसंग को और अधिक बढ़ाना हमको इष्ट नहीं । यदि उर्दू अपने इतिहास को छिपाकर आज तरह तरह का अडंगा न लगाती और अपनी शान पर सती होती तो कोई बात न थी। पर इस राष्ट्रचेतना और इस विश्वसंकट के समय तो हमें उसी देवी की उपासना ठीक सँचती है जिसके 'सेंदुर' के विषय में मलिक मुहम्मद जायसी का उद्गार है- १-- कमीनों । २-शरीफों। ३- तुच्छों । ४-विषय-विलास । ५.---धुनिया ।