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पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६४

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप और इस पर उनको बड़ा नाज़ था। शेख हजो शरफ मीर अली औसत से भी बड़े हुए थे। उन्होंने असी बयासी लफ़्ज़ छोड़ दिए । (तसहीलुल्बलागत सज्जाद मंजिल देहली, पृ०४२) इतने पर भी हमारी 'मुल्की और मुश्तरका' जबान के उस्तादों को कल न पड़ी। इन्हें इस क्षेत्र में कुछ और भी करना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि मुसलिम संस्कृति के प्रकांड पंडित अल्लामा शिबली को भी स्त्रीझकर कहना ही पड़ा- उर्दू ज़बान में चूँकि एक मुद्दत तक बेहूदा मुबालिगा' और ख्यालबंदी की गर्मबाज़ारी रही, इसलिए वाकात के अदा करने के लिए जो अल्फाज़ तरकीबें, इस्तेलाहात मुकर्रर हैं इस्तेमाल में नहीं आई। इसलिए श्राज नये सिरे से उनको इस्तेमाल किया जाय तो या इन्तजाल' यानी श्रामियानापन, या गराबत यानी रूखापन पैदा हो जाता है, नज़ीर अकबराबादी के कलाम में जो सूफियानापन है इसका यही राज है।" { मवाजेना अनीस व बीर, अल्नजिर प्रेस, लखनऊ, १६२४ ई०, पृ० १६०) 'मतरूक' और 'मुब्तज़ल के 'फरमानों' से पूरा पड़ते न देखकर 'फतवा' से काम लिया गया और हिंद के ठेठ मुसलमानों को जो दिव्य पाठ पढ़ाया गया उसका परिणाम यह हुआ कि उर्दू और मुसलमान एक हो गए। उर्दू 'नवी की जुबान' होकर ही रुक जाती तो भी गनीमत थी। बेचारे ठेठ मुसलमानों को कुछ तो नसीब होता। पर वहाँ तो वह रंग ग्रालिब हुआ कि कुछ कहते ही नहीं बनता । एक घटना आपके सामने है। समझ हो तो स्थिति को अच्छी तरह समझ लें और फिर राष्ट्रभाषा का १-झूठ । २-सामान्यता । ३-बाजारीपन ।