राष्ट्रभाषा का स्वरूप हमारी ज़बान ने जिस बरेबाज़म यानी एशिया में नशोनुमा हासिल की उसकी दो बड़ी ज़बानों यानी अरबी और संस्कृत में से सिर्फ अरबी जबान के अदब से कुछ फैन हासिल किया है। संस्कृत के अदब से उसने कोई फायदा नहीं उठाया । लातनी और यूनानी की तरह संस्कृत जबान भी मर गई यानी कहीं बोली नहीं जाती मगर जो ज़बानें इससे मुश्तक हुई, यानी हिंदी, मरहठी, गुजराती, बंगाली वगैरह उनके अदन का असर भी उर्दू ज़बान पर नहीं पड़ा। हालां कि उर्दू के रकबा के साथ उन जवानों का रकबा इश्तेसाल रखता है और इन जबानों के बोलनेवाले उर्दू बोलनेवालों के साथ बराबर मिलते-जुलते और आपस में रस्मोराह रखते हैं। अगर इन जवानों के अदब का असर हमारी ज़बान पर पड़ता तो, इसमें ज़रा शक नहीं, उर्दू ज़बान को सहीह मानों में मुल्की जवान होने का फख हासिल हो जाता और हिंदुओं को मुसलमानों की तरह इस ज़बान के मालिक होने का एकसाँ हक होता । ( उर्दू, सन् १९२५ ई०, पृ० ३७८ ) उर्दू के परदेशीपन और अराष्ट्रीय प्रवृत्ति का परिचय आवश्यकता से अधिक दे दिया गया। अब यहाँ यह स्पष्ट कर देना है कि जिस प्रकृति के आधार पर वह अपने आप को देशी या 'हिंदुस्तानी' जबान कहती है वह वस्तुतः हिंदी है। अतएव प्रकृति की दृष्टि से उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं । अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकृति का नाम हिंदी रहे या हिंदुस्तानी ? जहाँ तक पता है हिंदुस्तानी के पक्ष में अब तक एक भी ऐसी दलील सामने न आई जो उसे हिंदी से बढ़कर सिद्ध कर दे। सच पूछिए तो 'उर्दू की तरह हिंदुस्तानी' शब्द भी हिदिओं के लिये अपमानजनक हो गया है और फिरंगियों की रंगसाजी की गवाही १-उत्पन्न । २--लगाव । ३-रीति-नीति ।
पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६६
दिखावट