डॉक्टर ताराचंद और हिंदुस्तानी राजनैतिक केंद्र नहीं रहता। श्री वल्लभाचार्य के ब्रज में श्राकर बसने और वहाँ कृष्ण भक्ति के अपने संप्रदाय का प्रचार शुरू करने से पहले एक धार्मिक केंद्र के नाते भी ब्रज का कोई महत्त्व न था। स्पष्ट ही बल्लभाचार्य के इस आंदोलन ने ब्रज की बोली को वह बढ़ावा दिया, जिससे वह एक साहित्यिक भाषा का रूप धर सकी। उत्तरी हिंदुस्तान में सूरदास ने और बल्लभाचार्य के दूसरे शिष्यों ने अष्टछाप ) व्रजभाषा के प्रमुत्व को इस कदर बढ़ाया कि उसका एक रूप सुदूर बंगाल में भी कृष्णभक्ति को व्यक्त करने के माध्यम के रूप में अपनाया गया। १-यदि यह ठीक है तो प्राकृतों में शौरसेनी को इतना महत्त्व क्यों मिला और क्यों वही शिष्ट प्राकृत वनी? २- श्री वल्लभाचार्य क्या, उनके पुत्र श्री विठ्ठल जी भी उनके निधन के उपरांत बहुत दिनों तक 'अडेल में ही रहे और फिर जाकर ब्रज में बस रहे। ३-डाक्टर साहब को पता नहीं कि श्री वल्लभाचार्य के अनेक शिष्य उनके संप्रदाय में दीक्षित होने के पूर्व भी ब्रजभाषा के कवि ये और 'स्वामी' के रूप में ख्यात भी थे। इतिहास का यह अछूता और अधकचरा ज्ञान किसी डाक्टर का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता पर किसी परीक्षार्थी का सर्वस्व हर सकता है। शोध की दृष्टि से देखो तो पता चले कि बल्लभाचार्य ने वस्तुतः क्या किया । ब्रजभाषा- साहित्य को जन्म दिया अथवा स्थिति को अनुकूल बना उससे लाभ उठाया। स्मरण रहे, श्री वल्लभाचार्य के उदय के पहले ही कृष्ण- लीला का विस्तार हो चुका था और ब्रजभाषा में न जाने कितनी पद रचना हो चुकी थी। ४-बंगाल कितने दिनों से ब्रजभक्त है इसका पता 'जयदेव'
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