पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१७४

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संयुक्त मोर्चा और भारतीय कम्युनिस्ट १६१ विकास न करके उसकी तरक्कीको रोकनेवाली थी। उनका ख्याल था कि यह महज कम्युनिस्टोके प्रभावको रोकनेकी एक तरकीब है। सन् १९३५ मे कम्युनिस्टोकी सातवी काग्रेस हुई और उसमे कुछ महत्त्वपूर्ण निश्चय हुए। उन्होने अपनी पुरानी भूलोको स्वीकार किया और ट्रेड यूनियन एकताकी नीति फिरसे स्थिर की, सकीर्णताके परित्याग करनेका आदेश दिया और संयुक्त मोर्चेकी नीतिको नये ढंगसे वर्तनेपर जोर दिया। किन्तु इस नीतिका अनुसरण एक साथ सब देशोमे नही किया गया । इस नयी नीतिको लेकर हिन्दुस्तानके कम्युनिस्टोमे वहुत वाद-विवाद हुआ और धीरे-धीरे यह नयी नीति काममे लायी जाने लगी । काग्रेस समाजवादी दल अपने जन्मकालसे ही ट्रेड यूनियन एकताके लिए प्रयत्नशील था और जब कम्युनिस्टोने 'इण्टर नेशनल' से नया आदेश पाया तो अपनी 'लाल' यूनियन तोड़ दी और एकताके लिए काग्रेस समाजवादी दलके साथ सहयोग किया । धीरे-धीरे पुरानी सयुक्त मोर्चेकी नीति भी बदलने लगी। अब कम्युनिस्टोने काग्रेसकी स्थानीय कमेटियोकी ओर ध्यान देना उचित समझा । उस समय कम्युनिस्ट पार्टी गैर कानूनी करार दी जा चुकी थी। इसलिए उसे सब कानूनी अवसरोसे लाभ उठाना था। इसी गरजसे वह काग्रेससे भी लाभ उठाना चाहती थी । काग्रेसमे जनताके सम्पर्कमे पानेका अच्छा मौका मिलता था और इस काममे हुकूमत रुकावट भी नही डाल सकती थी। कम्युनिस्ट उन श्रेणियोपर इस प्रकार अपना प्रभाव बढाना चाहते थे जो उनके विचारसे साम्राज्यवादका विरोध तो करना चाहती थीं किन्तु अभी काग्रेस संस्थासे पृथक् नही हुई थी। कम्युनिस्ट पार्टीकी कांग्रेससे शिरकत- का तो सवाल ही नही उठता था। पार्टीको सुधारवादका उसी प्रकार विरोध करना था जिस प्रकार साम्राज्यशाहीका । कम्युनिस्ट काग्रेस सगठनका अपने मतलवके लिए उपयोग करना चाहते थे, जनताको सगठित सघर्षके लिए तैयार करना चाहते थे, और उसको सुधारवादियोके प्रभावसे मुक्त करना चाहते थे। इसके विपरीत उनके कथनानुसार रायपथी और समाजवादी काग्रेसको बलिष्ठ करनेके हकमे थे ताकि वह सफलताके साथ मजदूर, किसान और शहरके गरीवोको धोखेमे रख सके। कम्युनिस्टोंकी आत्म-प्रवंचना कम्युनिस्टोकी रायमे जनताका काग्रेसकी समझौतेकी नीतिपरसे विश्वास उठ गया था, किन्तु कम्युनिस्ट पार्टी इस परिस्थितिसे पूरा लाभ नही उठा सकी थी और उसके कामको बिगाड़नेके लिए समाजवादी दल उत्पन्न हो गया था। उसकी रायमे कम्युनिस्टोके वढते हुए प्रभावको दवानेके लिए ही यह एक नया तरीका सुधारवादियोने निकाला था ताकि समाजवादके नामपर जनताकी आखमे धूल डाली जाय । कांग्रेस तो उनके मतसे सुधारवादी संस्था थी, किन्तु देशमे कतिपय मजदूर-यूनियन तथा कुछ अन्य साम्राज्यविरोधी संस्थाएँ मौजूद थी जो सुधारवादको कट्टर विरोधी थी और जो क्रान्तिकारी जनताको अपनी ओर आकृष्ट करनेका सामर्थ्य रखती थी। किन्तु अब वह यह सोचने लगे थे कि इन संस्थाओंका प्रभाव कही अधिक हो सकता है ११