पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२३

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१० राष्ट्रीयता और समाजवाद जनता अपनेमें शासनकी योग्यता प्रतिपादित करती जायगी त्यों-त्यों अधिकाधिक अधिकार उसको प्राप्त होते जायेंगे।' 'ह्य म साहबने गवर्नर-जनरल लार्ड डफरिनसे भी इस सम्बन्धमें सलाह की और उनकी अनुमति प्रान्त की । इङ्गलैण्डमे पेशनयाफ्ता एग्लो-इण्डियनोसे भी मशविरा किया गया और सवका आगीर्वाद लेकर इस कार्यका सूत्रपात हुया । लार्ड डफरिनका खयाल था कि इस प्रकार वढते हुए असन्तोपको रोककर कुछ वर्षोके बाद इस संस्थाको वन्द कर देगे। हैजेके प्रकोपके कारण पहला अधिवेगन पूनमें न होकर वम्बईमें श्री उमेशचन्द्र वनर्जीकी अध्यक्षतामें हुआ । संस्थाका नाम 'इण्डियन नेशनल काग्रेस' रखा गया । इस अधिवेशनमे ७२ प्रतिनिधि उपस्थित थे। कई सरक अहलकार भी सलाह-मशविरेके लिए मौजूद थे, यद्यपि सरकारी नौकर होनेकी वजहसे वे प्रतिनिधिको हैसियतमे कारवाईमें भाग नहीं ले सकते थे। उस समय सरकारी नौकरोके लिए दर्शकरूपसे ऐसे अधिवेशनोंमें सम्मिलित होनेकी मनाही न थी। सन् १८८६ मे जो काग्रेस कलकत्तेमे हुई थी उसके प्रतिनिधियोको लार्ड डफरिनने दावत भी दी थी। प्रारम्भमे कांग्रेसका उद्देश्य शुद्ध राजनीतिक न था। वह सब प्रकारके सुधारके लिए उद्योग करना चाहती थी। लेकिन सन् १८८६ की काग्रेसमे दादाभाई नौरोजीने सभापतिकी हैसियतसे इस बातकी घोषणा की कि काग्रेस एक गुद्ध राजनीतिक संस्था है और उसको उन सामाजिक प्रश्नोसे कोई सम्बन्ध नहीं है जिनके बारेमे मतभेद पाया जाता है। ज्यो-ज्यो काग्रेसका प्रभाव शिक्षित समुदायमें बढ़ने लगा और प्रचार-कार्यका विस्तार होने लगा त्यो-न्यो सरकारका विरोध भी प्रारम्भ होने लगा । सन् १८८८ मे जब काग्रेसका अधिवेशन प्रयागमे हुआ था तव अधिकारीवर्गके विरोधके कारण स्थानके मिलनेमें प्रवन्धको- को वहुत दिक्कत उठानी पड़ी थी। मुसलमानोंको कांग्रेससे अलग, रखनेकी कोशिग भी इसी समय शुरू हुई । मुसलमानोके नेता सय्यद अहमद खाँ मुसलमानोको राजनीतिसे अलग रखना चाहते थे । इसके कई कारण थे। पहले तो वे सरकारको अपने सम्प्रदायका विरोधी नही बनाना चाहते थे । सिपाही-विद्रोहके पश्चात् सरकार मुसलमानोंसे बहुत नाराज थी, क्योकि उन्होने इस विद्रोहमे अच्छा खासा हिस्सा लिया था। मुसलमानोने अग्रेजी-शिक्षासे लाभ नहीं उठाया, क्योकि उनका खयाल था कि उनके लड़के यदि अंग्रेजी स्कूलोमे पढ़ने जायेंगे तो नास्तिक बन जायँगे । अंग्रेजी-शिक्षासे विमुख रहनेका दूसरा कारण यह था कि इन अंग्रेजी स्कूलोमे धार्मिक शिक्षाका कोई प्रवन्ध न था और अध्यापक प्रायः हिन्दू या ईसाई होते थे। वाज लोगोका यह भी खयाल था कि शरहके अनुसार अग्रेजी-शिक्षा प्राप्त करना मना है । उनकी यह भी धारणा थी कि अग्रेजी शिक्षासे कोई लाभ नहीं है और उससे उनका नैतिक अध पतन ही होगा। अंग्रेजी न पढ़नेके कारण मुसलमानोको सरकारी नौकरियां नहीं मिलती थी । वहुतोकी जमीन्दारियां जन्न कर ली गयी थी। मुगल सल्तनतके नष्ट हो जानेके कारण उनको फौजमें अब ऊँचे-ऊँचे' 9. On Education of the People of India (1838). qcg poo