जनताका आशादीप बुझ रहा है २५६ न होगी। इस अधिकारको स्वीकार करनेका अर्थ केवल यह है कि राज्य भाषण आदिकी स्वतन्त्रता देता है और यह मानता है कि शान्तिमय सत्याग्रहका अधिकार व्यक्तियोको है। इस स्वीकृतिके बाद वह यह नही कह सकता कि यह सिद्धान्तत. गलत है। वह इतना ही कह सकता है कि सत्याग्रहका उद्देश्य पवित्र नही है अथवा उसके लिए कोई उचित कारण नही है। या तो ऐसे मामले अदालतमे न जायँगे और यदि गये तो अदालत नाममात्रको दण्ड देगी, यदि ऐसे सत्याग्रहसे शान्तिभंग नहीं होती। यह अधिकार तव भी होना चाहिये जब राष्ट्रीय सरकार हो और लोक-तन्त्रात्मक सरकार हो । किन्तु आज कुछ लोग यह कहते सुने जाते है कि जब अपनी गवर्नमेण्ट हो गयी तो हडताल, सत्याग्रह आदिका अधिकार होना चाहिये । इसका परिणाम यह हो जाता है कि गवर्नमेण्ट और भी वेधड़क होकर गलत आज्ञाएँ प्रचारित करती जाती है । यह ठीक है कि लोकतन्त्रात्मक शासनमे ऐसे अवसर कम आने चाहिये और प्रत्येकको विशेष आवश्यकता पडनेपर ही इस अस्त्रका सोच-समझकर प्रयोग करना चाहिये । किन्तु आज तो प्रान्तके प्रान्त दफा १४४ या पब्लिक सेफ्टी ऐक्टके शिकार हो रहे है। गवर्नमेण्टने इस प्रकार अपनेको हास्यास्पद बना दिया है । यह कैसे विश्वास किया जाय कि समूचे प्रान्तमे इस विशेषाधिकारकी आवश्यकता है। किसी व्यापक अराजकताके चिह्न हमको दिखायी नही पडते । कलकत्तेमे अथवा हैदरावादके कुछ हिस्सोमे इसकी आवश्यकता हो सकती है । किन्तु कम्युनिस्टोका ऐसा कोई प्रभाव नही जिससे शान्तिभंगकी सर्वत्र आशङ्का हो । जनता उनके साथ नही है यह कई वार सिद्ध हो चुका है, फिर यदि सर्वत्र इस प्रकारके विशेपाधिकार बरते जावे तो यही सन्देह होता है कि गवर्नमेण्ट अन्य पार्टियोके काममे बाधा उपस्थित करना चाहती है। धीरे-धीरे भारत एक बड़ा कैदखाना होता जाता है । ऐसी अवस्थामे सत्याग्रहका अधिकार स्वीकार करना और भी आवश्यक है । भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलोका काग्रेसके साथ सहयोग होना तव तक सम्भव नही है जबतक इन बातोका निर्णय नहीं हो जाता । यदि काग्रेस किसी दलका सहयोग नही चाहती तो कोई हर्ज नहीं है, किन्तु जनताकी उपेक्षा करके वह भी जिन्दा नही रह सकती और जनताका सहयोग तभी उसे प्राप्त होगा जब वह किसी ऊँचे आदर्शको उसके सामने रखकर और स्वय उसपर चलकर उसकी उदासीनताको दूर करेगी और उसके बुनियादी सवालोको हल करेगी।
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