पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३०५

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२६० राष्ट्रीयता और समाजवाद प्राथमिक शक्तियां भवाध गतिने परिचालित होती है और यपि जाहिर देगनमें व्यवित स्वतन्त्र मालूम होता है, तथापि वास्तवगे वा गुलाम है । जो अवयव उराग पृथक कर दिये गये है, जैसे सम्पत्ति, श्रम और धर्म उनगी अवाध गतिको वर भूनन अपनी स्वतन्त्रता समझता है, किन्तु असलियत यह है कि कि यही अबाध गति उननी गुलामी पोर मानवताने उसके अलग किये जानेको जाहिर करती है। पूंजीवादी राज्य पूंजीवादी राज्यमे मनुष्यको जो राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है उगमा अर्थ केवल इतना ही है कि यह पूंजीवादी गमाजना सदस्य और राज्यका नागरिक बन जाता है। वर्तमान राज्य ( State ) मनुप्गो गाधारण अधिकागेको स्वीकार करना है। राज्य राजनीतिक दृष्टिरो व्यक्तिगत सम्पनिको रचीगार नहीं करता और गाना वाटका अधिकार प्रदान करनेमे वह जायदादका लिहाज नही करता । रागने जन्म, क्षिा और व्यवसायके फर्फको भी राजनीतिक दृष्टिगे मिटा दिया जब उगने अपने विधान में सातो समान स्पसे राजनीतिक अधिकार प्रदान किया । धगंगा अस्तित्व भी किनी प्रकार राज्यके पूर्ण विकागमें वाधक नही माना गया । किन्तु पूर्ण रूपमे विगमित राज्य प्रधागत. सामाजिक जीवनका ही प्रतिनिधित्व करता है, न कि गानयो भौतिक जीवनमा । राज्य जव मनुप्यके साधारण अधिकारीको स्वीगृत करता तव उनका अचं केवल इतना ही होता है कि वह पूंजीवादी समाजके व्यक्तिको अस्तित्वको और नाय ही नाथ मानव-जीवनको बौद्धिक और भौतिक अवयवोकी अबाध गतिको स्वीकार करता है। न प्रलर राज्य मनुष्यको धर्मके बन्धनौरो नही मुक्त करता, यह केवल उरागो धार्मिक स्वतन्त्रता अर्थात् किसी धर्मविशेपको अपने लिए चुन लेनेका अधिकार ही प्रदान करता है । इसी तरह राज्य केवल वोटका हक देनेमे सम्पत्ति, जन्म और व्यवसायक कृत्रिम भेदोका लिहाज नही करता । किन्तु इस विधानने व्यक्तिगत सम्पत्तिका लोप नहीं हो जाता । राजनीतिक स्वतन्त्रता मानवको स्वतन्त्र नहीं करती। मानव तो तभी स्वतन्त्र होगा जब उनका जीवन खण्डित न हो, जव उसके जीवनके बौद्धिक और गीतिक अवयव उससे पृथक् न कर लिये जायें ; जब कि वह एक मामाजिक जीव होकर अपनी जिन्दगी बगर करे और अपना काम-काज देखे और जब मनुष्य अपनी प्राकृतिक शक्तियोंको सामाजिक शक्तियोंकी तरह संगठित कर सामाजिक शक्तिको राजनीतिक शक्तिके र पगे अपनेसे अलहदा न करे। विविध खण्डशास्त्र जो मनुष्यके अवयवोको उससे पृथा कर उनका अध्ययन करते है, मानवताके आलोकमें क्षीण और सारहीन नजर पाते है । यथार्थवादी मार्ग मानवताका सबसे बड़ा पुजारी होते हुए भी मार्क्स ख्याली घोटे नहीं दौड़ाता, वह काल्पनिक जगत्मे स्वच्छन्द विचरण करना पसन्द नहीं करता। वह इस दुनियाकी ठोस हकीकतको ही अपने अनुसन्धानका आधार बनाता है। उसने किसी सुन्दर ससारकी कल्पना नही की है। वह पुरानी दुनियाको अँधेरेमे लाकर उसकी परीक्षा और आलोचना