पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३५६

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आगरा विश्वविद्यालय ३४१ आयोजन हो और उसमें सव विश्वविद्यालयो तथा अन्य साहित्यक संस्थानोका सहयोग लिया जाय तो अति उत्तम हो । एक निश्चित योजनाके अनुसार यह काम होना चाहिये और पाठयपुस्तकोकी रचना जल्द-से-जल्ट हो जानी चाहिये । अंग्रेजीके द्वारा हमको यूरोपीय ज्ञान अबतक मिलता रहा है, पर स्वतन्त्र होनेके पश्चात् हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध सब राष्ट्रोसे हो गया है । ऐसी अवस्थामे अपने देशमे ससारकी विविध भापायोकी शिक्षाकी व्यवस्था हमको करनी होगी। यदि सब विश्वविद्यालय मिल-जुलकर इस कामको आपसमे वाँट ले तो यह काम सुचारु रूपसे चल सकता है । विद्यार्थियोकी सख्या निरन्तर बढती जाती है और इसलिए अध्यापक और विद्यार्थी का सम्पर्क भी कम होता जाता है । यह अवस्था अवाञ्छनीय है । परस्परका सम्पर्क बढ़ानेके लिए Tutorial पद्धतिका विस्तार एक अच्छा उपाय है। किन्तु यह पद्धति बड़ी महँगी है और इस कारण इसका विस्तार कठिन है जबतक कि धनका प्रवन्ध न हो । पुन. इस पद्धतिका तभी पूरा लाभ उठाया जा सकता है जव विद्यार्थी इसको अपने कालेजके जीवनका केन्द्र समझे । हालत यह है कि विद्यार्थी इसको पाठ्यक्रमका एक सामान्य अंगमान समझते है और जबतक परीक्षाका स्वरूप नहीं बदलेगा तबतक अधिकांश विद्यार्थी शिक्षाको वह महत्व नही देगे जो उन्हें देना चाहिये । इतना कहनेपर भी यह मानना पड़ेगा कि इस पद्धतिसे कुछ विद्यार्थियोको लाभ अवश्य होता है । अत समस्या यह है कि इस पद्धतिको जारी करनेके अतिरिक्त और क्या करना चाहिये जिससे विद्यार्थी अध्यापकोके निकट सम्पर्क में आये। अनुशासनका प्रश्न भी इससे सम्बद्ध है । आज चारो ओरसे इस बातकी शिकायत होती है कि विद्यार्थियोमे संयमकी कमी हो गयी है । इसके क्या कारण है ? इसपर हमको विचार करना है, क्योकि विना रोगका निदान जाने रोगका उपशम नही हो सकता। इस संयमकी कमीके अनेक कारण है । जीवनको अनिश्चितताके कारण समाजकी सब श्रेणियोमे असन्तोप पाया जाता है । समाजके मौलिक अाधारके सम्बन्धमे ही तीव्र मतभेद है । महायुद्धके पश्चात् आर्थिक कठिनाइयाँ और वढ गयी है और इसका मनोवृत्तिपर बुरा प्रभाव पड़ता है। आज हमारे देशमे सरकारी विभागोमे भी कुशलता और अनुशासनकी कमी आ गयी है । सारा देश इस रोगसे ग्रस्त है । आर्थिक कठिनाइयोको विना दूर किये पूर्णरूपसे सयमका पुन. प्रतिष्ठित होना सुगम नही है । जहाँतक विद्याथियोका सम्बन्ध है उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार कर तथा उनके निकट सम्पर्कमे आकर हम इस शिकायतको बहुत कुछ दूर कर सकते है । विद्यार्थियोको ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिसमें वह आत्मसंयमके महत्त्वको समझे । बाहरसे अनुशासनका आरोप प्राय. व्यर्थ हुआ करता है। हमारे विद्यालयोका वातावरण ही ऐसा होना चाहिये जिसमे असयमके उदाहरण वहुत कम हो जायें। हमारे विद्यार्थियोको भी समझना चाहिये कि उनको अपने राष्ट्रको सवल वनाना है तथा एक नूतन समाजका निर्माण करना है । समाजके वही नेता और निर्माता होगे। किन्तु प्रात्म-संयमके विना कोई भी व्यक्ति किसी जिम्मेदारीके कामको निभा नहीं सकता।