पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/८३

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७० राष्ट्रीयता और समाजवाद यदि साथ-साथ इसी अनुपातमे खेतीके रकबेमे भी वृद्धि हुई होती तो बेकारीके बढनेका प्रसंग न उपस्थित होता, किन्तु दु खका विषय यह है कि भूमिके बोझमे वृद्धि होनेके साथ- साथ खेतीके रकबेमे उलटे कमी ही हुई है। इसका अनिवार्य परिणाम यह हुआ है कि प्रान्तके कितने ही अधिवासियोको अपनी रोजी कमानेके लिए भारतके अन्य प्रान्तो तथा विदेशोमे प्रति वर्ष जाना पडता है । ऐसे लोगोकी संख्या वरावर बढती जाती है । दूसरा परिणाम यह हुआ है कि खेतोके टुकडे-टुकडे हो गये है । जोत टूटती जाती है और छोटे खेतोकी सख्यामे वृद्धि होती जाती है । खेती करना इस तरह लाभदायक नही रह जाता। ऐसे किसानोकी संख्या कुछ कम नहीं है जिनकी जोतका रकबा मुश्किलसे १ बीधेका दशाश होगा । अपने प्रान्तमे काश्तका रकबा ३॥ करोड एकड़ भूमि है । जनसख्यामेसे लगभग इतने ही लोग प्रधानतया अथवा अंशतः खेतीपर निर्भर करते है । इस प्रकार फी आदमी पीछे १ एकड भूमिका औसत पडता है । अन्य देशोसे यदि हम तुलना करे तो हमको मालूम होगा कि हमारे प्रान्तमे भूमिका औसत फी आदमी पीछे बहुत कम पडता है। गत ३० वर्षमे लगानमे काफी वृद्धि हुई है । सन् १९३१ की मर्दुमशुमारीकी रिपोर्ट के अनुसार जहाँ मालगुजारीमे केवल ७५ लाख रुपयेका इजाफा हुआ है वहाँ काश्तकारका लगान ६ करोड ६५ लाख बढ गया है। इधर लगानमे इजाफा हुआ है तो उधर पैदावारका खर्च भी बहुत ज्यादा बढ गया है । लगानकी रकममे नजरानेकी रकम भी जोड़ना चाहिये । फी एकड भूमि पीछे ५।।) २० नजराना देना पडता है । इन विविध कारणोसे किसानकी गरीबी वढती जाती है । गरीवीके साथ-साथ उसका कर्ज भी वढता जाता है । सन् १९२६ मे प्रान्तीय लेनदेन जॉच-कमेटी (प्राविशल बैकिङ्ग इक्वाइरी कमिटी) ने देहातोमे रहनेवाले लोगोंका कर्ज १२४ करोड रुपया कूता था। इस रकममेसे केवल २० करोडके करीव जमीदारोका कर्ज है, बाकी किसानोका । सन् १९२६ के वादसे कर्जकी रकम बढती ही जाती है । लगभग ४० फी सदी किसान और छोटे जमीदार ऋणके असह्य वोझसे इतना अधिक दवे हुए है कि वह एक प्रकारसे महाजनोके गुलाम है । उनका ऋण जीवनभर उनके चुकाये न चुकेगा । यह ठीक है कि गवर्नमेट ने इधर कानून बनाकर इस बोझको हलका करनेकी कोशिश की है, पर इस कानूनसे अधिक लाभ बड़े-बडे जमीदारोको ही पहुँचता है । जहाँ किसानका महाजन खुद उसका जमीदार है वहाँ इस कानूनसे किसानको कुछ भी मदद नहीं मिलती। जमीदार सौ तरीकेसे अपना कर्ज वसूल कर लेता है। इसके अतिरिक्त इस कानूनके बन जानेसे किसानको अव कर्ज नहीं मिलता। कौन महाजन इस कानूनके होते अब देहातमे लेन-देन करेगा ? कर्जके विना किसानका काम नही चलता। वह सदा कर्जमे डूवा रहता है । इसीके आधारपर वह किसी प्रकार अपना काम चलाता रहता है । जवतक स्टेटकी ओरसे कम सूदपर किसानोको कर्ज देनेकी व्यवस्था न की जायगी तवतक इस प्रकारके कानूनोसे किसानोको विशेप लाभ नहीं पहुंच सकता । कोआपरेटिव सोसाइटीका काम अपने प्रान्तमे सर्वथा असफल रहा है ।