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है न कि राजस्थानी के । यहाँ पर जहाँ यह कहा गया कि रासो राजस्थानी या डिंगल भाषा की कृति नहीं यहाँ पर वह पश्चिमी हिंदी या भाषा में सूर, सेनापति, रसखान, आदि की कृतियों के समान भी नहीं वरन् वह ऐसी व्रज भाषा की कृति है जिसपर प्रादेशिक डिंगल की स्वाभाविक छाप है, इसीलिये राजस्थान में उसे पिंगल-रचना कहे जाने की प्राचीन अनुश्रुति है । पं नरोत्तम स्वामी ने रातो को पिंगल रचना कहते हुए उपर्युक्त लेखक द्वय से रासो का व्याकरण निर्माण कर इस भ्रम का निराकरण करने का आग्रह किया था ।' जिसके उत्तर में उन्होंने लिखा- "रासो के लघु रूपान्तरों की भाषा अधिकाधिक अपभ्रंश के निकट पहुँचने लगी । कई स्थल तो ऐसे हैं कि सामान्य परिवर्तन करते ही भाषा अपभ्रंश में परिवर्तित हो जाती है, कान्तिसागर जी ने जो प्रति हूँढ़ निकाली है उसकी भाषा मुनि जी के मतानुसार अपभ्रंश हैं। हम तो वास्तव में इस डिंगल और पिंगल के झगड़े को व्यर्थ समझते हैं। परवती रूपान्तरों में भाषा एक नहीं खिचड़ी है जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ( दृहद् रूपान्तर के लिये ) लिखा है, 'इसकी भाषा बिलकुल बेठिकाने हैं। उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं । कहीं कहीं तो भाषा आधुनिक साँचे में ढली दिखाई पड़ती है । क्रियायें नये रूपों में मिलती हैं पर साथ ही कहीं भाषा अपने असली प्राचीन साहित्यिक रूप में पाई जाती है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के साथ साथ शब्दों के रूप और विभक्तियों के चिन्ह पुराने ढंग के हैं ।' डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने भी इस विषय में अपनी कोई निश्चयात्मक सम्मति नहीं दी है। वास्तविक वस्तु तो मूल ग्रंथ है और उसके विपय में सभी अधिकारी विद्वान इस परिणाम पर पहुँचने लगे हैं कि इसकी भाषा अपभ्रंश है। मरु, टक्क और भादानक ये तीनों मरुदेश के अंतर्गत या सर्वथा पार्श्ववर्ती थे जहाँ की मूल भाषा अपभ्रंश थी। इन प्रदेशों की देशी भाषा में रचित राजस्थान के सम्राट और सामन्तों की गौरवमयी गाथा को हम चाहे अपश की कृति मानें चाहे प्राचीन राजस्थान की देश्य भाषा की, इसमें वास्तविक भेद ही है ।" २

१. पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक २-३, जुलाई-अक्टूबर सन् १९४६ ई०, पृ० ५१-३;

२. पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक ४, जनवरी सन् १९४७ ई०, पृ० ४९-५१ ;