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समाविष्ट गद्य में 'समराइच्चकहा' नामक 'धम्मकहा' का प्रणयन किया है।' दसवीं शताब्दी के पुष्पदंत विरचित अपभ्रंश-काव्य गावकुमार चारेउ' ( नागकुमार चरित ) में वर्णित है कि रानी विशालनेत्रा ने सपत्नीक-द्वेष-शीभूत हो नागकुमार की माता के प्रति पर-प्रेम का दोष इङ्गित कर राजा से उसके आभूषण उतरवा लिये थे । नागकुमार ने लौटकर अपनी माता को अलङ्कारों से रहित इस प्रकार देखा जैसे कुकवि की लिखी हुई कथा हो । इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि अलङ्कारों का लाया जाना ( कल्पनाक्षित )कथा-काव्य में अति आवश्यक था ।

संस्कृत-विजय काव्यों, प्राकृत-अपभ्रंश के चरिउ और कहा काव्यों तथा राजस्थानी-गुजराती के रासो या रास-विलास और रूपक काव्यों पर संस्कृत काव्यशास्त्र के कथा-काव्य के लक्षणों का प्रभाव संभव है । इन सभी कृतियों में पद और अलङ्कार योजना सरस रस की अभिव्यंजना करती हुई देखी जा सकती है ।

चंद वरदायी को 'कित्तीकहा' (कीर्ति-कथा) 'पृथ्वीराज रासो' भी युद्ध और प्रेम बद्ध कथा-काव्य है जिसकी वस्तु इतिहास और कल्पना के योग से प्रस्तुत की गई है । रासो के ६९ 'प्रस्तावों' में से दस का नाम-कथा भी है; यथा-- दिल्ली किल्ली कथा, नाहर राय कथा, मेवाती मुगल कथा, हुसेन कथा, इच्छनि व्याह कथा, माधो भाट कथा, होली कथा, दीप-मालिका कथा, धन कथा और वरुण कथा । रामायण, महाभारत, बृहत्कथा, वासवदत्ता, कादम्बरी, लीलावई प्रभृति ग्रन्थों की श्रोता-बक्का वाली पद्धति रासो में भी वर्तमान है जो परवर्ती कीर्तिलता और रामचरितमानस में भी पाई जाती है।

लगभग आठवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध प्राकृत-पद्य कथा-काव्य 'लीला बई' (लीलावती) को उसके रचयिता 'कइ कोऊहल' (कवि कुतूहल ) ने एक हेमन्त ऋतु की चन्द्र-ज्योत्स्ना पूर्ण रात्रि में अपने महल में 'ऐसी दिव्यमानुषी कथा जो कुछ देशी शब्द भिश्रित प्राकृत भाषा में नवयुवतियों


१. समराइच्च कहा, (भूमिया, पृ० २-४ ), हरिभद्र, सम्पादक डॉ० हरमन जाकोबी;

२. जिरणत्वथप विरइयणियंसण, तथाएं जणणि दिड शिम्भूसरा ।

पुच्छिय माइ काई थिय एही, निरलंकार कुकइ कह जेही ॥

२,११, ११-१२;