पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १४७ )

पुछि चंद बरदाई नैं । चित्ररेख उतपत्ति ।।
षा हुसेन घावास कहि । जिम लीनी सपत्ति ।।१

और 'भोलाराय १२' में पिछले दीर्घ अन्तर के बाद शुक, शुकी का प्यार करते हुए, इंच्छिनी और पृथ्वीराज के विवाह की आदि से अन्त तक की गाथा का वर्णन सुनने के लिये कहता हुआ पाया जाता है :

अपि सुको सुक पेम करि । यदि अंत जो बत ।।
इंच्छिनि पियह व्याह विधि । सुष्ष सुनंते गन्त ।। २ ;

इस 'प्रस्ताव' के अन्त तक विवाह नहीं हो पाया था कि अचिन्त्य रूप से गोरी का युद्ध बीच में आ जाता है, जिसके वर्णन की समाप्ति 'सलघ जुध्द समयो १३' के अन्तिम छन्द में शुक शुकी के वार्तालाप में होती है :

सुकी सरस सुक उच्चरिय । प्रेम सहित आनंद ।।
चालुक्का सोझति सथ्यौ । सारूडै मे चंद ।। १५९


चौदहवें समय में नींद न आने वाली शुकी की पुन: जिज्ञासा पर शुक, इंच्छिनी-विवाह का वर्णन विस्तार से सुनाने के लिये सन्नद्ध हो जाता है :

कहै सुकी सुक संभलौ । नींद न आवै मोहि ।।
रय निवानिय बंद करि । कथ इक पूछ तोहि ।। १
सुकी सरित सुक उच्चरथौ । धरौ नारि सिर चत्त ।।
सयन संजोगिय संभरै । मन मैं मंडिय हिन्त ।। २
घन लध्दौ चालुक संध्यौ । बंध्यौ षैत घुरसान ।।
छनि व्याही इच्छ करि । कहों सुनहि दै कांन ।। ३,

इंच्छनी के घर पृथ्वीराज, धन-प्राप्ति, चालुक्य-विजय और गोरी-बन्धन के कारण अधिक यशस्वी श्रस्तु अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक हो गये हैं। इसकी चर्चा करके कवि ने श्राबू-कुमारी के विवाह में अधिक रस पैदा कर दिया है। इसी 'समय' के बीच में शुकी,शुक से इंच्छिनी का नख -शिख पूछती हुई पाई जाती है :

बहुरि सुकी सुक सों कहै । अंग अंग दुति देह ।।
इछनि अंछ वषानि कै । मोहि सुनावहु एह ।। १३७ ,

और प्रियातमा शुकी को रानी के अंग और रूप-सौन्दर्य का वर्णन सुनाते-सुनाते सारी रात्रि व्यतीत हो जाती है :

सुनत कथा अछि वत्तरी । गइ रत्तरी विहाइ ।।
दुज्ज ऋही दुजि संभरिय । जिहि सुष श्रवन सुहाइ ।। १६३