पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १४९ )

बारहवीं शताब्दी के बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के कवि धोयी ने अपने 'पवनदूत' ' में पवन को प्रणय-दूत बनाया था, तब चंद के लिये उक्त कार्य हेतु शुक की नियुक्ति कवि-परम्पराश्रित ही थी ।

अव रासोकार के 'पद्मावती समय २०' के प्रणाय दूत का कौशल और साथ ही कवि-चातुर्य भी देखते चलना चाहिये । समुद्रशिखरगढ़ की राजकुमारी राज-उद्यान से एक शुक को पकड़ लेती है और उसे अपने महल में नग-मणि जटित पिंजड़े में रखती है :

सखियन सँग खेलत फिरत । महलनि बाग निवास ।।
कीर इक दिप्रिय नयन । तब मन भयो हुलास ।। ८ तथा ९,

और फिर उसका चित्त शुक की ओर कुछ इस प्रकार रम जाता है कि वह सारे खेल छोड़कर उसे राम-राम पढ़ाया करती है :

तिही महल रयत भई । गइव पेल सब भुल्ल ।।
चिस चट्टयौ कौर सौं । राँम पढ़ावल फुल्ल ।। १०

'कादम्बरी' और 'पदमावत' (जायसी) के शुक की भाँति रासो का इस स्थल का शुक पूर्व से ही वाचाल नहीं है, परन्तु आगे तो जैसे उसका कंठ एकदम खुल जाता है । पद्मावती के रूप, गुण आदि देखकर वह अपने मन में विचार करता है कि यह पृथ्वीराज को मिल जाय तो उचित हो :

कीर कुंवरि तन निरपि दिपि । न सिप लौं यह रूप ।।
करता करी बनाय । यह पदमिनी सरूप ।। ११, तथा


के दर्शन से अपने को सफल करने की कामना लिये, भूमण्डल के अलङ्कार सदृश कुंडिनपुर को प्रस्थित हुआ । ]

३. सारंगाच्या जनयति न यद् भस्मसादंगकानि

स्वदेश्ले स्मर हुतवह: श्वास संधुक्षितोऽपि ।

जाने तस्या: स खलु नवनद्रोणिवारां प्रभावो

यद्वाश्व तव मनोवर्तिन : शीतलस्य ।। ७५;

[अर्थात् -- (मलयाचल की गन्धर्व कन्या कुवलयावती ने राजा लक्ष्मणसेन के रूप पर मोहित होकर उनके चले जाने पर पवन दूत द्वारा अपना विरहसन्ताप प्रेषित किया । पवन कहता है-- हे राजन् ! तुम्हारे वियोग में यह कामरूपी अग्नि, श्वास के पवन से सुलगाई जाने पर भी उस मृगनयनी के कोमल अंगों को जलाकर राख नहीं कर देती इसके दो ही कारण संभव हैं--एक तो उसके सुन्दर नेत्रों से अनवरत अश्रुधारा बह रही है और दूसरे तुम्हारी शीतल मूर्ति उसके हृदय में प्रतिष्ठित हैं । ]