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है ( छं० १०४-१७ ) । इसी शुक्र-शुकी वार्तालाप सूत्र के अन्तर्गत आगे चलकर पढ़ते हैं कि जब योगिनी रूपिणी अप्सरा के प्रति सुमन्त काम के बशीभूत हो रहे हैं (छं० १५०-५३ ), तब वह कहती हैं कि योग की उक्तियों से क्या होगा, श्यामा से प्रेम सहित रमख करो जिससे पूर्व जन्म का फल प्राप्त हो :

वनिता बदंत विप्पं । जोगं जुगति केन कम्मायं ।।
स्थामा सनेह रमनं । जनमें फल पुल्व दत्ता ।। १५४,

इसी अवसर पर सुमन्त के पिता जरज ऋषि थाकर अप्सरा को श्राप दे देते हैं (छं० १५८-९९ ) । यही श्रापित ( रम्भा ) ग्रप्सरा पहुषंग ( जयचन्द्र) के घर में जन्म लेकर संयोगिता के नाम से प्रसिद्ध होती हैं और ( मदन ) ब्राह्मणी के घर विनय-संगत पढ़ने जाती है (छं० २००) ।

सुमन्त मुनि और अप्सरा के वार्तालाप में सगुणोपासना का उपदेश भी मिलता है ( छं० १४३-४६) । इस चर्चा में भा बिन प्रीति न होइ' (छं० १४८) देखकर आचार्य द्विवेदीजी का अनुमान है-- 'यह प्रसंग तुलसी के मानस की कथा से प्रभावित होकर लिखा जा रहा हैं ग्रस्तु यह सावधान करता है कि शुक शुकी का नाम देखकर ही सब बातों को ज्यो-का-त्यो पुराना नहीं मान लिया जा सकता ।' परन्तु संयोगिता का व्यक्तित्व और उसकी कहानी मूल रासो की कथा है जिसे डॉ० दशरथ शर्मा विविध प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर चुके हैं ।

छियालिसवें ‘विनय मंगल नांम प्रस्ताव' के श्रोता यक्ता पूर्व 'समय' के गन्धर्व-गन्धवी है :

पुन कथा संजोग की । कहत चंद बरदाई ।
सुनत सुगंधव गंत्रवी । अति श्रानंद सुहाई ।।१,

फिर संयोगिता को शिक्षा देने के प्रकरण में शुक शुकी आ जाते हैं । शुक-शुकी, द्विज-द्विजी और गन्धर्व-गन्धर्वी इस प्रकरण में बहुत उसके हुए से हैं परन्तु मूलतः वे इन्द्र प्रेरित गन्धर्व-गन्धर्वी हैं, जो शेष दो रूपों में देव- राजका कार्य साधते हैं। जयचन्द्र अपनी किशोरी कुमारी संयोगिता को शिक्षा देने के लिए मदन ब्राह्मणी को नियुक्त करते हैं। एक रात्रि के पिछले प्रहर में द्विजी, द्विज से संयोगिता के विषय में प्रश्न करती है :


१. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृ० ६५ ;

२.संयोगिता, राजस्थान भारती, भाग २, अंक २-३ जुलाई-अक्टूबर

१९४६ ई०५ पृ० २१-२७;