पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२८०

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स्मरण रहे कि दूसरे दूत के वचन आधे रू० ३६ से प्रारंभ होकर अगले रू० ४१ की समाप्ति की एक पंक्ति कम तक जाते हैं । 'रासो-सार' में केवल एक हो दूत के आने का वर्णन है जबकि दूसरे दूत के आने का हाल रू० ३६ से स्पष्ट है । 'रासो-सार' का उपर्युक्त वर्णन पढ़ने से पता लग जाता है कि उक्त सार लेखक दूसरे दूत के आगमन का हाल नहीं समझ सके और न उसके वर्णन के क्रम का ही । उन्होंने रू० ३८, ३६, ४० और ४१ में आये हुए नाम मात्र समझ पाये हैं ।

(२) "दोहा और दूहा की मात्रा में कुछ भेद नहीं है । दूहा पुराना और दूहा नया प्रयोग है। उनमें से दूहा "दु + कह" से बना है अर्थात् जिसमें दो ऊह हों उसे दूहा कहते हैं । और हिन्दी दोहा शब्द संस्कृत द्वोहा से इस प्रकार बना हुआ जान लेना चाहिए - दु+अ+उ = द्+चा+व= द्व । द्व+ऊहा = द्व+अ + ऊहाँ द्र + ओ + हा = दोहा = हिन्दी दूहा । षटभाषा के प्रचार के समय इसको दूहड़िका वा दोहड़िका भी कहते थे । उसका संस्कृत में लक्षण और उदाहरण यह है- “मात्रा त्रयोदशर्क यदि पूर्व्वं लघुक विराम । पश्चदि- कादशकंतु दोहfer fद्वगुणेन ॥” तथा उसका प्राकृत उदाहरण यह है :- "माई दोहडि पठण शुग हसिश्रो कारण गोवाल। वृन्दावणा घणकुंज वलियो कमल रसाल ।” अस्यार्थ :- हे मातः । दोहड़िका पाठं श्रुत्वा कृष्ण गोपालो हसित्वा कमपि रसालं चलितः कुत्र वृन्दावन घन कुंजे वृन्दावनस्य निवड निकुंजे । राई इति कचित पाठः तन्मतेन राधिकाया दोहड़िका पाठं श्रुत्वा गुरु लघु व्यत्ययेन बहुधा भवति ॥

यह २४ मात्रा का छंद है । उसमें यदि १३/११, १३३११ पर हैं और उसमें ६ ताल होते हैं – ४४, २१२, ४४, ऐसा दोहा गाने में ठीक दीपता है ॥" [ पृ० रा० ना० प्र० सं०, पृष्ठ २८५१ ]

दोहा छंद की विस्तृत विवेचना मेरी पुस्तक "चंद वरदायी और उनका काव्य" पृष्ठ २२० - २१ पर जिज्ञासु देख सकते हैं ।

कवित्त

रचि हरबल सुरतान, साहिजादा सुरतांनं ।
षां पैदा महमूद, बीर बंध्यौ सु विहानं ॥
षां मंगोल लल्लरी, बीस टंकी बर पंचै।
चौतेगी सब्बाज[१] बन अरि प्रांन सु अंचै ॥


  1. ना० -चौ तेगी सहवाज।