पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३०२

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( ६४ ) क्रम यों है -२, ३, ४, ३,४,३,४,५२८ । जहाँ २ चौकल हैं उनमें 'जन', जगण ( 15! ) ग्रति निषिद्ध है, अन्त में रगण कर्ण मधुर होता है ।' छंदः प्रभाकर, भानु । रासो में आया हुआ दंडमाली छंद इन लक्षणों से मिल जाता है व यह संभावना होती है कि चंद के काल में हरिगीतिका या महोसरी छंद को दंडमाली छंद भी कहते रहे होंगे । आधुनिक छंद ग्रंथों में यह छंद अपने 'दंडमाली' नाम से नहीं मिलता । दूद्दा गाह इक मुगति की, क्यौं करिजै बाषांन । मन नंष सामंत नै, (ज्यौं ) कच करवति पापांन ॥ ० ६३ | ०५१ | दूहा art 3 बी धुंध परिय, बद्दर छाये भांन । कुन घर मंगल बज्जों, के चढ़ि मंगल आंन ॥ ० ६४ | ०५२ । ूहा दिष्ट देषि सुरतांन दल, लोहा चक्कत बांन | हक फेरि उड़ चले, निसि आगम फिरि जांन ॥ ६५।०३। दूहा धजा बाइ बंकुर उड़ति, छवि कविंद इह आइ । उड़ान चंद निरंद विय. लगी मनो' अइ पाइ || छं० ६६ | ०२४ दहा Her संकहि बहि, वाजे कुहक सुगंग । मे सह निसान के, सुने न श्रवन ति अंग ॥ ० ६७ | रू०४५ | दहा अनी दो घनघोर ज्यौं, धाइ मिल कर घाट । चित्रंगी रावर बिना, करें कोन दह वाट ॥ छं० ६ भावार्थ--- रू० ५१ - यह ( युद्ध क्षेत्र) मुक्ति कम रू०४६ । करने का बाज़ार है। जिसका वर्णन नहीं हो सकता । सामंतों का को इस समय आरे के सिल्ली चढ़ जाने के समान हो गया ( अर्थात् ने बलवान और वीर तो थे ही इस क्रोध के आवेश में उनका पौरुष और भी प्रचंड हो उठा ) | (१) हा० ना०क्रम (२) मो० ज्यौ कवकरवती (३) ना०--वाई ( 8 ) को० ए० - जाम (५) ५० मो०- मानों, मानो (६) ना० सुरंग (७) ला० सी० - श्रवननि (८) ना०---घाय मिले कर घाट ए० कृ० को०- धाधा मिलेक वाट कर थाट ।