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अध्द अवन्निय चंद किय । तारस मारू भिन्न ।।
पलचर रुचिर अचरस । करिय रखनिय रिन ।। १५४६, स०६१

वासर ( दिन ) --

दिन का वर्णन युद्ध के साथ ही मिलता है, यथा :
चढ़त दीह चिप्पहर । परिग हज्जार पंच लुधि ।। १०८, स०३२;

रासो में क्षत्रिय के लिये दिन और युद्ध अनवरत रूप से अगाध सम्बन्ध में बँधे हुए । शूरवीर युद्ध के लिये दिन की अभिलाषा करते थे जिसमें उन्हें अपने स्वामी, स्वामिधर्म और योद्धापन के जीवन की बाजी जीतनी रहती थी । देखिये :

प्रात तूर बंछई, चक्क चक्किय रबि बंछै ।
प्रात सूर बंछई, सुरह बुद्धि चल सो बंछै ।
प्रात सूर बंछिई, प्रात वर बंछै वियोगी ।
प्रात सूर बंछई, सु बंछे बर रोगी ।

बंछयौ प्रात ज्यों त्यों उनन, बंधै रंक करन्न वर ।।
बंछयौ प्रात प्रथिराज ने, ज्यौं सती सत्त बंछैति उर ।। ५७, स० २७;

मृत्यु युद्ध का वरदान थी, जिसकी प्राप्ति के लिये लालायित शूर-साधक दिन की साथ करते | रात्रि में युद्ध का उल्लेख कही-कही हुआ है परन्तु वे सम्भवत: कुछ तो महाभारत आदि वर्णित देशीय परम्पराओं की युद्ध-वीर-व-नीति के कारण और कुछ रात्रि में प्रकाश की अव्यवस्था के कारण एक प्रकार से वर्जित से थे । वैसे रात्रि में तभी तक युद्ध चलते थे जब तक ज्योत्स्ना रहती थी । एक स्थान पर आया भी है कि दितीय चन्द्रमा अस्त होते ही युद्ध बंद हो गया :

प्रतिपद परितापह पहर । समर सूर चहुआन ।।
दिन दुतिया दल न उरभि । ससि जिम सद्धि पिसान ।।११९, स० ३७

प्रातःकाल--

इस युद्ध-काव्य में प्रात: की महिमा उचित ही हुई है। रात्रि की विश्रान्ति के पश्चात् प्रातः ही तो वीरों की कामना पूरी होती थी । यशःप्रदाता उषःकाल के कतिपय वर्णन देखिये :

(अ) प्रात:काल हुआ, रात्रि रक्त वर्ण दिखाई देने लगी, चन्द्र मंद होकर अस्ताचलगामी हुआ । तामसिक वृत्ति वाले शूर वीर तमस ( क्रोध ) में भर कर तामस पूर्ण शब्द कहने लगे । नगाड़ों का गंभीर