पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/५६

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2ऊ की वृदों के धाते ही मुझे कुछ सत्र हु और मैं उसे थाम्ह कर एक ओर को तेजी के साथ चलो !::-: ..::. :.. . कुछ देर तक वही जंजीर एकड़े हुए चलने के बाद में एक ऐसी । जराहे पर पहुंचा, जहां पर भरी गर्दन तक पानी था, इसलिये मैं .खुदाद करीम का शुक्रिया अदा कर के सुस्लाने लगा और जब कुछ तबीयत ठिकाने छुई तो मैं उसी जंजीर को पकड़े धुंए फिर आगे बढ़ने लगा । कुछ दूर आगे बढ़ने पर मैं पानी से निकल कर सूखे में आया, जहां की जमीन एक तरह से दलदल थी, में जंजीर को पकड़े . हुए, बहुत सम्हल कर पैर रखता हुआ कुछही दूर और आगे गया था। कि मुझे कुछ उजेला नजर आया. और मैं वहीं ठहर कर उजेले को । देखने और उस पर गौर करने लगा। लेकिन वह उजेलो इतनी दूर ... अर था और इतना धुंधला: एएन कि सिवाय जुगनू के और यह कुछ भी नहीं मालूम देता था। ..................। " .::, आखिर, मैं धीरे धीरे बढ़ता हुआ, जब उस उजेले के करीब पहुंचा तो क्या देखता हूं कि एक पत्थर की संगीन दीवार में वह जंजीर, जिसे थाम्हे हुए मै यहां तक पहुंचा था, एक कड़े में लटकाई हुई थी। | और उसके पापही एक हाथ की दूरी पर दीवार में एक नकली सांप : बना हुआ था। उसकी आंखों में दो बेशकीमत जवाहिर जड़े हुए थे, : : जिनकी चमक से उस मुकाम पर इतना उजाला ज़रूर था कि जिसकी अढ़ से मैं वहां पर की चार चार हाथ दूर तक की सारी कैफियत खूबी देख सकता था। .. धेश्सर लो मैंने अपने पेट से पानी निकाला, फिर अपने कपड़े • 'पहिद कर मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर तक तो मैं तरह २के खयालों में उलझा रहा, फिर यकायक मेरे ध्यान में यह बात आई कि जरा इस सांप को तो टटोलें, देखें, इससे कोई यह निकलती है या नहीं। यह सोचकर मैं उस सांप की मूड़ी पकड़ कर इधर उधर घुमाने लगा, लेकिन वह म घूमी; तब मैने उसका स्विर अपनी तरफ लैंचा तो वह एक बालिश्व तक बार स्विच-अयर ..