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• शाहामहलसरा * मैंने गुस्से से ताव पेंच खाकर कहा,- 'मेरी दिलाराम की यह उसने मुस्कुराकर कहा,--«अब तो जैसी कुछ है, वह तुम्हारे सामने ही है, लेकिन पेश्तर पेसी न थी।" ___मैं,-" है ! तो ऐसी क्यों हुई ? " वह,-"तुम्हारी जुदाई की आग में जलते जलते !" मैं,-"अगर ऐसा होता तो मेरी भी शकल ऐसी ही हो जाती, क्योंकि मैं भी तो दिलारामकी जदाई की आग में भरपूर जला है।" वह,--"अजी हज़रत! अपर तुम वाकई जले होते तो जरूर इसी सूरत को पहुंच गये होते, लेकिन ऐसा नहीं है। " मैं,-"यों नहीं है ?" वह,-यो नहीं है कि अगर तुमको उसी जदाई का कुछ भी ख़याल होता ते तुम शाहीमहलसरा के अन्दर रंगरलियां मनाने न आते !" मैं,--"वह एक लाचारी अमर था, जिसका नतीजा मैं भेग रहा ई और नहीं जानता कि इस कैद से कब छुटकारा पाऊँगा।" वह,-" तो तुम मुझे दिलाराम नहीं मंजूर करते। वह,-"रगर तुम्हें यही माथी तो तुम बसीरको क्यों मारा! मैं- (चिलुककार) "किस नजीर को ? " वह,-'उसी मोर को, जिसे मार कर ही सुन्दरी रह चीजें तुमने पाई थी ! मैं--(ताज्जव से) 'यह हाल तुम्हें क्योंकर मालूम हुशा? वह,----.' यह नहीं बतलायाहती।" मैं,-"लेकिन, पजीर से भीर तुम क्या हाल १ . वह,-ले सुनकर भकश करने मैं,-"अपने गले दिल को तहलो दुमा । यह सुनकर उसने एक भी लगाया और कहा, "वह मेरा