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पृष्ठ:लवंगलता.djvu/७८

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चौदहवां परिच्छेद.
कथाप्रसङ्ग।

"हिसः स्वरापेन विहिसितः खलः,
साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते।"

(श्रीमद्भागवत)

मीरजाफ़रखां का पत्र पाकर महाराज नरेन्द्र सिंह श्रीवृन्दावन से लौट आए और अपनी प्यारी बहिन लवगलता से मिलकर परम सतुष्ट हुए। जब उन्होने लवंग और मदनमोहन से सारा वृत्तान्त सुना तो एक साथ उनके हृदय मे अपनी बहिन के ऊपर अत्यन्त श्रद्धा और सिराजुद्दौला पर घृणाव्यजक क्रोध उत्पन्न हुआ, और जब कि मुर्शिदाबाद को स्थिति पर उन्होने भली भाति बिचार किया तो कुसुमकुमारी के लिये उनका चित्त अत्यन्त व्यग्र होउठा। आज तक उन्होने अपनी प्यारी बहिन लवंगलता या मदनमोहन आदि किसी भी कुसुमकुमारी के विषय में कुछ भी नहीं कहा था, किन्तु अब वे उस दुःखिनी वाला के लिये इतने उत्कठित हुए कि उन्होने लवग, मदनमोहन, मंत्री माधवसिह आदि पर कुसुम का सारा रहस्य प्रगट कर दिया और साथ ही अपना अभिप्राय भी सभी पर प्रगट कर दिया कि.—

अब हम कुसुम के साथ कैसा बर्ताव किया चाहते है।

इसके अनन्तर वे दो एक अनुचरो के साथ मुर्शिदाबाद पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने कुसुम को बड़ी शोचनीय अवस्था मे पाया! उसकी माता मरण-शैय्या पर पड़ी हुई थी और उसके घर के प्रत्येक म्थान का दरिद्रता की घोर छाया ने अश्ने ग्रास में कर लिया था!

इसके अनन्तर कुसुमकुमारी की माता कमलादेवी अपनी प्यारी पुत्री का हाथ नरेन्द्रःसह को पकडा कर स्वर्ग सिधारी और नरेन्द्रसिंह ने स्वयं कमला के शव का संस्कार करके कुसुमकुमारी और उसकी दासी चंपा को अपने हरे पर लाकर रक्षापूर्वक रक्खा। यदि उसी दिन नरेन्द्र कुसुम को उसके घर से न टाल देते तो बड़ा