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[पंद्रहवां
लवङ्गलता।


एक रस में पड़े नैन, कमल की कुछ भी पर्वा नहीं करते और न कदापि उसके उपमेयी सकते हैं!

लवंगलता की नाक ने तो नाक (स्वर्ग) की ही नाक काट ली है। तो बप, अब कौन उपयात सूर्पनखा होने से बच रहा है जो अपनी नाक की जड़ कटाने के लिये उसकी नाक के आगे अपनी नाक लावेगा!

लवंगलता के कान की उपमा देने का जब जब अवसर आता है, कान के उपमान अपने कान पर हाथ रख लेते और कहने लगते है कि,—"बस कृपाकर हमारा कान न काटिए, हम अपना कान अपने हाथ से मल डालते है।" तो, पाठक! जब उन उपमानों की ही यह दशा है, तो हम क्या करें!!!

इसी प्रकार लवंग के कपोल की सी गोलाई भूगोल में भी नहीं है, अधरोष्ठ की सी मिठाई अमृत मे भी नहीं है,चिबुक की सी चमक चामीकर मे भी नही है. दंतपंक्ति को सी आभा मोती की लड़ी में भी नहीं है; और उरकी रसना तो मानो यह पुकार कर कह रही है कि,—अजी! ससार का सभी रम मैंने अपने आधीन कर लिया है; अब त्रैलोक्य मे जहां देखोगे, वहीं "रस, ना" पाओगे!!!' कहने का तात्पर्य यह है कि जब लवंग के आगे सभी उपमान स्वयं अपना पराजय स्वीकार कर रहे है, तब हम और नए उपमान कहांसे लावें!

कविजन नायिकाओं के स्तन की उपमा शंभु (!) से देते हैं, यह उन काबियों को विनारशन्यता है! अजी! स्तन तो वह अलौ- किक वस्तु है कि जिससे,—समय समय पर असख्य 'चंद्रचूड' की उत्पत्ति होतोरहती है कविवर भानुदत्तने बहुत ही ठीक कहा है कि—

"नखेन कस्य धन्यस्य चंद्रचूडो भविष्यति!"

अतएव शिवकरी (ल्याण-कारिणी) लपंगलता के स्तन की महिमा का बखान कर कौन पाप का भागी हो!!

करने का तात्पर्य यह है कि जिसे 'बिधाता ने स्वयं अनुपम उपादाना से निरुपम बनाया है, उसके लिये उपमान या उपमा की आवश्यकता ही क्या है? अतएव त्रैलोक्य-मोहनी, निरुपमा,सुन्दरी लवंगलता अपनी उपमा आप थी और उसके अलौकिक अंगों के सामने कवि-कल्पना-प्रसूत उपमानों को पराजय स्वीकार करना