पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०८

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3 चतुरसेन की कहानियाँ तबियत हलकी हुई, पर रात जो मुझ पर अत्याचार हुआ था वह असाधारण था; पर मैं जानती हूँ कि जगत के मर्द इमसे दुभित न होंगे। वेश्या के बाहरी स्वरूप को सभी देखते है, वह भीतरी रूप तो हम स्वयं ही देखती हैं। मैं जरा उठ कर देखने लगी, रेल की पटरी के बराबर ही बराबर सड़क थी, उस पर एक मोटर तेजी से दौड़ी चली आ रही थी। मोटर गाड़ी से दौड़ लगा रही थी। मुझे कौतूहल हुआ, मैं एकटक उसे देखने लगी। मैंने देखा, एक स्त्री उसमें बैठी बड़ी बेचैनी से गाड़ी को देख रही है। स्टेशन आया, गाड़ी खड़ी हुई और वह स्त्री घबराई हुई स्टेशन में घुस आई ! एक कर्मचारी उसे मेरे डब्बे में बैठा गया। डब्बे में बैठते ही वह हाँफने लगी और दोनों हाथों से मुंह ढंक कर बैठ गई। गाड़ी के चलते ही मैंने उसके पास जाकर कहा-"श्रापको कुछ तकलीफ है क्या ? उसने चौंक कर देखा और मुझे देख कर जोर से मेरा हाथ पकड़ कर कहा-"कुछ नहीं, ईश्वर का धन्ववाद है कि मेरी इज्जत बच गई । तुम कहाँ जा रही हो ?" कहा-दिल्ली! “मैं भी वहीं जा रही हूँ। तुम्हारा घर किस मुहल्ले में है और तुम्हारे पति क्या काम करते हैं ?" मैं क्या जवाब देती, मैं चुपचाप खड़ी रही। कुछ सम्हल कर मैंने कहा-आपको कुछ मदद चाहिए, वह मैं कर सकूँगी। आप कहिए। "मैं तुम्हारे यहाँ कुछ घण्टे ठहरना चाहती हूँ और अपने पति को तार-द्वारा सूचना देना चाहती हूँ। क्या तुम मेरे लिए इतना कष्ट करोगी? १००