पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१११

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पतिता "जरूर, परन्तु xxx मैं फिर चुप हो गई। "परन्तु क्या १५-उसने घबरा कर कहा ! "मैं तवायफ हूँ, शायद श्रापको मेरे घर चलना पसन्द न हो...वह खी इस तरह चमकी, जैसे बिच्छू ने डङ्क मारा हो। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया, मैं अपनी जगह भा बैठी। कुछ देर सन्नाटा रहा, आत्म-ग्लानि के मारे मैं मर रही थी। उस स्त्री ने पूछा-कहाँ से आ रही हो ? "महाराजxxx की महफिल से।" उसने घृणा और क्रोध से मेरी ओर देखा, उसने होठ काट कर कहा-उस हरामजादे को मैं मच्छर की तरह मसल डालूंगी, उसने मुझे भी तुम जैसी ही रस डी समझा होगा। मेरे कलेजे में तोर लगा। मैंने धोरज धर कर कहा- उससे घृणा करती हूं, रात उसने मुझ पर बड़ा जुल्म किया है, हम अभागिनी स्त्रियों की तो सर्वत्र एक ही दशा है। मैं जा हूँ वही रहूँगी, यह तो किस्मत है। पर आपको कोई भी सेवा खुशी से करसँगी, यदि आप चाहें। उसने मेरी तरफ देखा, और कहा-मेरे स्वामी उस स्टेट में इजीनियर हैं। हम लोग पारसी हैं, पर्दा नहीं करतीं। उस पापी ने मुझे और मेरे पति को एकाध बार चाय-पानी के लिए बुयाया था। वे कल से ही कहीं बाहर भेज दिये गए। उसने आज सुबह मुझे बुला भेजा कि साहब आए हैं, यहाँ बैठे हैं। मैं सीधे स्वभाव चली गई, पर वहाँ धोखा था। मेरी इज्जत बचनी थी, मैं गुसलखाने की राह भाग कर मोटर में भागी हूँ। मैं सीधी वायसराय के पास जाना चाहती हूँ। मैं दिखा दूंगी कि किसी महिला की आबरू उतारने की कोशिश करना किसी