पृष्ठ:लालारुख़.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

साया हुअा शहर राज्य का विस्तार कर स्वर्गस्थ हुए तथा उनके पुत्र जहाँगीर ने मुराल तखन को सुशोभित किया, तत्र यह बेचारा भाग्यहीन शहर एक दलित मलिन विधवा को भात अपनी सम्रा श्री यो चुका था और इतनी ही देर में बे महल और प्रासाद खण्डर और सूने हो चले थे। बादशाह जहाँगीर अपनी आयु के पचास साल व्यतीत कर चुके थे। मुग़ल साम्राज्य का संगटन पूरा हो चुका था। काबुल, कन्धार, ईरान, तूरान, हब्श और कुरन्तुनिया तक उत्तको धाक जम गई थी । इंगलैंड और यूरोप के अन्य देशों के राजदून भाँति भाँति के नज़राने लेकर जहाँगीर के दरबार में चौखट चूमते थे। बादशाह बहुधा लाहौर के दौलतखाने में रहते थे। आगरा भी उनका प्रिय निवास था । वास्तव में आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी थी। राजधानी जहाँ विविध आश्चर्य और राजनैतिक घटनाओं का केन्द्र थी, वहाँ वह अनेक पडयन्त्रों का घर भी थी। बहुत सी खून खरावियाँ, बहुन ती अनीति मूलक कार्यवाहियाँ वहाँ आये दिन होती रहती थीं। जहाँगीर एक नर्म दिल प्रेमी और लापरवाह बादशाह थे। अफीम और शराब दोनों का सेवन करते थे। उनका मिजाज प्रेमीजनों की भाँति कुछ सनकी था। असल बात तो यह थी कि वे नाम के बादशाह थे। असल बादशाह तो नूरजहाँ मलिका थी, जिसने अपने रूप, यौवन, चतुराई, खुशमिजाजी और बुद्धि वैभव से बादशाह और बादशाह के साम्राज्य पर भी अपना अधिकार कर रखा था। मुग़ल साम्राज्य का कोई दरबारी अमीर नूरजहाँ की कृपा