पृष्ठ:लालारुख़.djvu/८

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चतुरसेन की कहानियाँ सवारी दिल्ली के बाजारों में होकर कश्मीर जा रही थी, और दिल्ली शहर की यह सब तैयारियाँ इसी सिलसिले में थीं। जिन सड़कों से सवारी जानेवाली थी, उन पर गुलाब और केवड़े के अर्क का छिड़काव किया गया था। दुकानों की सब कतारें फूलों से सजाई गई थीं। जगह जगह पर मौलसरी और वेले के गजरों से बन्दनवार बनाए गए थे। बजाजों ने कम- बख्वाब और जरबफ्त के थानों को लटका कर खूबसूरत दर. बाजे तैयार किए थे, जौहरी और सुनारों ने सोने चान्दी के जेवरों और जवाहरात के कीमती जिंसों से अपनी दूकान के बाहरी हिस्से को सजाया था। इंतिजाम के दारोगा और वरकंदाज लाल-लाल बरदियाँ पहने और जरी की पगड़ियाँ डाटे घोड़ों पर और पैदल इन्तिजाम के लिए दौड़ धूप कर रहे थे। छज्जों और छतों पर लाला रुख की सवारी देखने के लिए ठठ की ठठ औरतें आ जुटी थीं। परदा नशीन बड़े घर की औरतें चिलमनों की आड़ में खड़ी होकर लाला रुख की सवारी देखने का इन्तिजार कर रही थीं। नजूमियों और ज्योतिषियों से लाला रुख की विदाई का महूरत दिखा लिया गया था। ठीक मूहूरत पर लाला रख की सवारी लाल किले से रवाना हुई। सबसे आगे शाही सवारों का एक दुस्ता हाथ में नंगी तलवारें लिए चल रहा था। उसके बाद जर्क बर्क पोशाक पहने हाथ में बड़े बड़े भाले लिए, बरकंदाजों का एक भुण्ड था। इसके बाद तातारी बांदियाँ तीर कमान कमर में कसे और नंगी तलवार हाथ में लिए, जड़ाऊ कमर पेटी में खंजर खोंसे, तीखी निगाहों से चारों तरफ देखती हुई, आगे बढ़ रही थीं। इसके बाद झूमते हुए, शाही हाथी थे, जिन पर जरदोजी की सुनहरी भूलें