पृष्ठ:लालारुख़.djvu/८६

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चतुरसेन की कहानियाँ वस्तु मैली न हो जाय, बिगड़ न जाय---इस भय से मैं सिकु कर एक कोने में खड़ी हो गई। मैं मैली-कुचैली, गाँव की अल्हड़ बच्ची इस घर में कहाँ रहूंगी ! रह-रह कर भाग जाने की इच्छ होती थी। मौसी ने मेरी द्विविधा को भाँप लिया, उसने पास आकर दुलार से कहा--जा बेटो! ऊपर हीरा है और भी कई जनी हैं, तू भो वहीं जाकर बैठ। मैं ऊपर चल दी क्या देखा? कह ही दूँ ? रूप वहाँ बिखरा पड़ा था। मानों किसी ने चाँद को जोर से जमीन पर दे मारा हो और उसके टुकड़े बिखरे पड़े हों। सब दस पन्द्रह थीं। सभी एक से एक बढ़ कर । समी अलवेली मस्तानी थी, और चुहलबाजी में लगी थीं। किसी की कंघी-चोटी हो रही थी, किसी का उबटग; कोई धोती चुन रही थी, कोई गजरा गूंध रही थी। सभी नवेलियाँ थीं, यौवन उनके अङ्गों से फूट रहा था। यौवन और सौन्दर्य के ऊपर एक और उन्मादिनी वस्तु थी, जिसे तब न समझा था, बहुन दिन बाद, जब मैं भी उनमें मिल गई, समझा-वह थी वेश्यापन की धृष्टता। और उसने उन्हें आफत बना रखा था। वे लड़कियाँ न थीं, स्त्रियाँ भी न थीं; वे थी आग के छोटे- छोटे अङ्गारे। पड़े दहक रहे थे, छूते ही छाला उत्पन्न कर दें। इन सबके बीच में हीरा थी। उसका भी कुछ वर्णन तो करना ही पड़ेगा, वैसा रूप तब से आज तक, यद्यपि मैंने जीवन भर रूप के सौदे किए-पर देखा ही नहीं, सुना भी नहीं। इटली के कारीगर की बनाई सङ्गमसर की प्रतिमा की भाँति, हंस की सी सुराहीदार और सफेद गर्दन छठाए वह बैठा बाल सुखा