पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९१

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पतिता उस दान के सम्मुख अब तक के सभी ठाठ तुच्छ थे। मैं नारी जीवन का रहस्य समझी, पर यहीं तक होता तो मेरे बराबर मुखी कौन था? पर मेरी तकदीर में वेश्या-जीवन का रहस्य समझना लिखा था!! X X एक महीना स्वप्न की तरह बीत गया। ज्यों-ज्यों महीना बीतता था, वे चिन्तित और उदास होते थे। मैं पूछनी, पर वे बताते नहीं, टाल जाते ! एक दिन मैंने उन्हें घेर लिया। उन्होंने कह दिया-सिक तीन दिन और मुझे तुम पर अधिकार है आनन्दी ? इसके बाद तुम मेरे लिए गैर हो जाओगी। "यह क्या बात है " "मैं तुम्हारे लिए अगले महीने को तनखाह नहीं जुटा सकता" तनखाह कैसी "न हजार साए महीने पर मैंने तुम्हें तुम्हारी माँ से लिया था" "आह ! क्या मैं गाय-भैंस की तरह वेची गई हूँ ! "ऐसा होता तो फिर क्या बात थी ! मैं तुम्हें ऐसी जगह ले जाता, जहाँ किसी की दृष्टि न जाती, पर तुम किराए पर उठाई गई हो, मैंने एक महीने का किराया दिया, अब जो देगा, वह मेरे स्थान पर होगा।" "मैं तड़प उठी, यह कैसे सम्भव है ? मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, क्या तुम नहीं करते ?" "जान से बढ़ कर " "फिर हमारे बीच में कौन है ?"