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दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

करना पड़ता था। डण्डकी मार खानेमें, उस समय, चीनी लोग अपना अपमान न समझते थे। हाँ, हमारे कृपा-कटाक्षसे उन्हें जो यन्त्रणा भोगनी पड़ती थी उसे वे ज़रूर नापसन्द करते थे। बड़े-बड़े सेना-नायक और प्रान्तशासक हमारे कठोर अनुग्रहको प्राप्त करके भी अपने उच्च पदोंपर प्रतिष्ठित रहते थे। चीनमें अपराधियों ही तक हमारे कोपकी सीमा बद्ध न थी। कितने ही निरपराध जन भी हमारे स्पर्श-सुखका अनुभव करके ऐसे गद्गद हो जाते थे कि फिर जगहसे उठतक न सकते थे। हमारी पहुँच बहुत दूर-दूरतक थी। चोरों, डाकुओं और हत्यारों आदिको जब कोतवाल और पुलिसके अन्य प्रतापी अफ़सर न पकड़ सकते थे तब वे हमारी शरण आते थे। उस समय हम उनपर ऐसा प्रेम दरसाते थे कि उछल-उछलकर उनकी देहपर जा पड़ते थे। चीनकी पुरानी अदालतोंमें जितने अभियुक्त और गवाह आते थे वे बहुधा बिना हमारा प्रसाद पाये न लौट सकते थे।

चतुर और चाणाक्ष चीनके अद्भत क़ानूनकी बात कुछ न पूछिये। वहां अपराधके लिए अपराधी ही ज़िम्मेदार नहीं। उसके दूरतकके सम्बन्धी भी जिम्मेदार समझे जाते थे। जो लोग इस जिम्मेदारीका ख़याल न करते थे उन्हें स्वयं हम पुरस्कार देते थे। चीनमें एक सौ परिवारोंके पीछे एक मण्डलकी स्थापना होती थी। उसकी ज़िम्मेदारी भी कम न होती थी। अपने फिरकेके सौ कुटुम्बोंका यदि कोई व्यक्ति कोई अपराध करता तो उसके बदलेमें मण्डल सज़ा पाता था। देव-सेवाके लिए रक्खे गये शूकर-शावक यदि बीमार या दुबले

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