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लेखाञ्जलि


यूनानी इतिहासकार भी इसी मतकी पुष्टि करते हैं। प्लूटार्कने सिकन्दरके जीवन-चरितमें लिखा है कि जब सिकन्दरने पञ्जाबको जीतकर आगे बढ़ना चाहा, तब उसने सुना कि युवक चन्द्रगुप्त एक बड़ी भारी सेना लेकर यूनानियोंपर आक्रमण करनेके लिए आ रहा है। इसलिए वह लौट पड़ा। यह घटना ३२६ ई॰ पू॰ की है। इसके कुछ ही दिनों बाद (३२५ ई॰ पू॰ में) चन्द्रगुप्तने, चाणक्यकी सहायतासे, नन्दवंशका नाश करके मगधका राज्यसूत्र अपने हाथमें लिया। क्विंटस कर्टियस रूफस, डायोडरस, सिल्यकस और जस्टिन आदि इतिहासकारों तथा मुद्राराक्षस-नाटकसे भी यही बात सिद्ध होती है।

ऊपर लिखे हुए प्रमाणोंसे यह अच्छी तरह प्रकट है कि चन्द्रगुप्त मगधके सिंहासनपर ३२५ ई॰ पू॰ में बैठा था और अशोकका राजतिलक २६६ ई॰ पू॰ में हुआ था। लोग कहेंगे कि चन्द्रगुप्तके सिंहासनारोहण और अशोकके राजतिलकसे बुद्धके निर्वाण-कालका क्या सम्बन्ध? उत्तर यह है कि इनमें परस्पर बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों समय बुद्धके निर्वाणका समय निश्चित करनेके लिए बड़े ही महत्त्वके हैं। क्योंकि लङ्काके बौद्ध-ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्धके निर्वाणके ठीक १६२ और २८८ वर्ष बाद चन्द्रगुप्तको राज्यासनकी प्राप्ति और अशोकका राजतिलक हुआ था। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध-भगवान्‌का निवाण ४८७ ई॰ पू॰ में हुआ था। बौद्धग्रन्थोंके पूर्वोक्त कथनको अध्यापक मैक्समूलरने भी माना है। इसके सिवा अशोकके अभिलेख भी इस मतकी पुष्टि करते हैं।

अशोकके अभिलेख पश्चिममें गुजरातसे लेकर पूर्वमें उड़ीसा