पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१५९

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आकार की रोटियां बनाकर खास उत्सव के समय देवी - पूजा करके खाई जाती थीं । मैक्सिको और मध्य - उत्तर अमेरिका में भी लिंग- पूजा प्रचलित थी । प्रसिद्ध लेखक ब्रुसेनवर्क लिखता है कि प्लोलमी फिखाड़े लफस के समय एक वृहत् लिंग की स्थापना की गई थी , जिसकी लम्बाई 390 फीट थी । यह लिंग ऊपर से स्वर्णमण्डित था । हिरोपोलिस में वीनस के मन्दिर के सामने दो सौ फीट ऊंचा एक पत्थर का लिंग स्थापित था । रुद्र के साथ नन्दी का सम्बन्ध बताया गया है। नन्दी को एक बैल के रूप में शिव का वाहन कहा गया है। हम बता चुके हैं कि वैदिक साहित्य में रुद्र को एक सांड़ के समान शक्तिशाली बताया गया है । आश्वलायन गृह्यसूत्रों में एक शुलगव यज्ञ का उल्लेख है , जिसमें एक चितकबरे बैल को मारकर “ रुद्राय महादेवाय जुष्टो वर्धस्वहराय, कृपया , शर्वाय , शिवाय , भवाय, महादेवायो ग्राय , पशुपतये रुद्राय , शङ्करायेशानायाशनये स्वाहा ” इस प्रकार मन्त्रों से उसकी पूंछ, चाम , सिरऔर पैर की आहुति देने का उल्लेख है । वैभाकदिफसेस के सिक्कों पर महेश्वर की मूर्ति और नन्दी बैल की मूर्ति चिह्नित मिली है । इसका राज्य- काल संभवतः ईसा की पहली शताब्दी माना जाता है। मिस्र में , जहां शिव का स्थान माना गया है, बैल- पूजा अत्यन्त प्राचीन काल में लिंग- पूजा ही के समान मानी गई थी । रोमन जूलियस सीज़र ने लिखा है कि मिस्र में एक देवता असीरन माना जाता था , जिसकी आकृति सांड़ की - सी थी । इसे उत्पादन का द्योतक माना जाता था । ‘ एपिस नामक सांड़ के पूजन का उल्लेख मिस्र के प्राचीनतम इतिहास में है। इस बैल में पूजनीय होने के लिए कुछ खासचिह्न होने आवश्यक थे, जैसे पद का काला रंग , माथे पर उभरा हुआ सफेद चौकोर चिह्न, पीठ पर गरुड़ - जैसा चिह्न। इन चिह्नोंवाला बैल ज्यों ही कहीं मिल जाता था , वह तुरन्त पिंजरे में बन्द कर दिया जाता था । उसे अच्छा भोजन और सोने को नर्म बिछौना दिया जाता था । पीने के लिए पानी भी पवित्र कुएं से पहुंचाया जाता था । लोग उसे एकान्त में रखते थे। केवल उत्सवों के समय में ही बाहर निकालते थे। मन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति , आराधना होती थी । और लगातार सात दिन तक उसका जन्मोत्सव मनाया जाता था । बाहर से आया कोई दर्शक उसका दर्शन किए बिना वापस न जा सकता था । जब उसकी मृत्यु होती थी , तो उसे सुगन्धित लेपों से अत्यंत धूमधाम से दफनाया जाता था । वैदिक पणि लोग , जो यूरोप में फणिश कहाते हैं और इबरानी जाति के पूर्वज हैं , वे भी लिंगपूजक थे। वे बालेश्वर लिंग की पूजा करते थे। बाइबिल में इसे शिउन कहा गया मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जो लिंग मिले हैं , वे तमाम थोथी दार्शनिक बातों को खत्म कर देते हैं । वे वास्तव में शिश्न की आकृतियां हैं ।