भृगुओं का वंश दैत्य -याजक होने तथा आर्यावर्त से पृथक् होने के कारण आर्यों से उनके संस्कार - आचार बहुत भिन्न थे। एक बात और थी । विष्णु – सूर्य ने शुक्र की माता तथा भृगु की पत्नी का वध कर दिया था । भृगु की यह पत्नी दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री थी । इस पर क्रुद्ध हो भृगु ने विष्णु की छाती में लात मारी थी । सो सूर्यवंशियों से भृगुओं का यह वैर भी बहुत पुराना था । आर्यावर्त में बसकर और आर्यों के कुलगुरु होने पर भी उनके आचार बदले नहीं। भृगुओं की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे प्रबल योद्धा भी थे । उन्होंने बड़े- बड़े युद्ध भी किए। यदु , तुर्वसु और गुह्यु, जाति के वे सहायक रहे , पक्थ और शार्यातों के सम्बन्धी और कुलगुरु रहे । इस कारण उन दिनों आर्यों के सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन से इस वंश का अविच्छिन्न और महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहा । विशेषकर ऋचीक के कान्यकुब्जपति गाधि की पुत्री से विवाह कर लेने के बाद जब जमदग्नि और विश्वामित्र का जन्म हुआ तथा दोनों का साथ - ही - साथ पालन - पोषण हुआ तो काल पाकर ये दोनों मामा -भानजे , ऋचीक के मेधावी शिष्य , आर्यावर्त में एक बहुत ऊंची प्रतिष्ठा - भूमि पर स्थिर हुए । आर्यावर्त ही में क्यों ऋचीक की सत्ता तथा प्रभाव सिन्धु से गंगा तक व काशी से नर्मदा तक फैला था । उन्हीं के कारण विश्वामित्र भी इतने प्रसिद्ध हुए । राजा की भांति उतने प्रतिष्ठित कभी नहीं हुए । सम्भवतः आगे उसके वंश में राज्य रहा भी नहीं , परन्तु वे राजाओं के शीर्ष- स्थल पर बने रहे । संक्षेप में , वशिष्ठ और विश्वामित्र , ये दो उस काल के अप्रतिम नक्षत्र थे, जिनमें सारे आर्यावर्त की राजनीति और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा भूमि आधारित थी ।
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