जनपद स्थापित हो गए थे। इन बहिष्कृत पचास कौशिक परिजनों के सब परिवार दक्षिणारण्य में ही न बसकर आगे आंध्रालय तक चले गए और वहीं बस गए। आर्य सभ्यता और संस्कृति के कारण ही उनके जनपद सुसंस्कृत और सुसम्पन्न हो गए और इन परिवारों ने वहां की मूल जातियों से सम्पर्क स्थापित कर अपने को आंध्र घोषित कर दिया तथा उस महाद्वीप का नाम भी आंध्र ही रख लिया । इस जनपद का प्रमुख पुरुष महिदेव कहलाने लगा। जिस समय की घटना हमारे इस उपन्यास में वर्णित है , उस समय से कुछ प्रथम आंध्रालय का महिदेव तृणबिन्दु था । तृणबिन्दु मनुपुत्र नरिष्यन्ति का पुत्र था । इसी के काल में देवर्षि पुलस्त्य वहां गए और महिदेव तृणबिन्दु के अतिथि बने । उन दिनों सभी आर्य अनार्य जातियों में राजसत्ता और धर्मसत्ता संयुक्त ही थी । अधिकांश में ऐसा ही होता था । तृणबिन्दु भी धर्म और राज्य का अधिकारी था । ऋषि पुलस्त्य आर्य और युवक थे, सुन्दर और सुप्रतिष्ठित थे । संयोगवश उनका तृणबिन्दु की कन्या से प्रेम हो गया । तृणबिन्दु ने अपनी पुत्री इलविला उन्हें ब्याह दी तथा उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया । पुलस्त्य भी वहीं अपना आश्रम बना पत्नी सहित रहने लगे। ____ कालान्तर से तृणबिन्दु की कन्या इलविला से पुलस्त्य को पुत्र हुआ । पुत्र का नाम उन्होंने विश्रवा रखा और यत्न से वेद पढ़ाया । उन दिनों आर्यों का एकमात्र साहित्य वेद था । वह भी लिखित न था , न आज की भांति चार वेदों के रूप में परिपूर्ण था । केवल थोड़ी - सी अस्त - व्यस्त ऋचाएं थीं जो कण्ठगत रहती थीं तथा कण्ठपाठ ही ऋषिकुमार पढ़ते थे । आयु पाकर उनमें जो नवीन ऋचाओं का सर्जन कर सकते थे, वे स्वयं ऋषिपद धारण करते थे । युवा होने पर इस तरुण को भरद्वाज ने अपनी कन्या दे दी । उससे वैश्रवण का जन्म हुआ । वैश्रवण बड़ा तेजस्वी , मेधावी और उत्साही तरुण था । तृणबिन्दु और पुलस्त्य के समुद्योग से आर्य दिक्पालों ने उसे धनेश कुबेर का पद दे लोकपाल बना दिया । पुष्पक विमान भी उसे भेंट किया । पिता के परामर्श से वह दक्षिण समुद्र के कूल पर त्रिकूट पर्वत पर बसी हुई अपनी राजधानी लंकापुरी में रहकर परम ऐश्वर्य भोगने लगा। इस समय यह नगरी सूनी पड़ी थी । उसके चारों ओर सुदृढ़ दुर्ग था । गहरी खाई थी । अस्त्र - शस्त्र और स्वर्णमणि वहां भरपूर थे। वैश्रवण कुबेर ने लोकपाल होकर नगरी को फिर से बसाया । उसे उन्नत किया और देव , गन्धर्व, यक्ष , अप्सरा और असुर - दानवों से सम्पन्न किया । वास्तव में यह नगरी दैत्यों की थी । हेति और प्रहेति नामक दो सम्पन्न दैत्य सरदार थे। हेति ने काल दैत्य की बहिन भया से विवाह किया था । उससे उसे विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका विवाह सन्ध्या की पुत्री सालकटंकटा से हुआ । उससे सुकेश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे विश्वावसु गंधर्व ने अपनी पुत्री वेदवती दे दी , जिससे उसके तीन पुत्र हुए माली, सुमाली और माल्यवान् । ये तीनों भाई बड़े वीर्यवान और तेजस्वी हुए । अवसर पाकर इन्हीं तीनों भाइयों ने दक्षिण समुद्र - तट पर त्रिकूट सुबेल पर्वत पर तीस योजन चौड़ी और सौ योजन विस्तार की लंकापुरी बसाई और उसे विविध भांति सम्पन्न किया । हिरण्यपुर का अतोल हिरण्य ला - लाकर उन्होंने सुवर्ण ही के प्रदीप्त प्रासादों का निर्माण किया। धन , रत्न, मणि से वे प्रासाद आपूर्यमाण किए। इन्हें नर्मदा नाम की गन्धर्वी ने अपनी रूप - यौवनसम्पन्ना तीन पुत्रियां दे दीं । गन्धर्वपुत्रियों से माल्यवान् को सात पुत्र और एक पुत्री हुई । सुमाली को ग्यारह पुत्र और चार पुत्रियां हुईं । माली के चार पुत्र हुए । इसी प्रकार
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