अब रावण का यह राक्षस - सैन्य अपरिसीम था । रौद्र शक्ति से सम्पन्न और गन्धों से संयुक्त तथा अजेय मेघनाद , कुम्भकर्ण और सुमाली से सुरक्षित उसकी सेना एक ओर थी और दूसरी ओर उसका अपना विकराल परशु था । चलते - चलते राक्षसों की यह चतुरंग चमू आर्यवीर्यवान् क्षेत्र में आ पहुंची, जहां इन्द्रसखा मरुत् संवर्त ब्रह्मर्षि के नेतृत्व में यज्ञ कर रहे थे। मरुतों के इस यज्ञ में देवेन्द्र सहित सभी देवता उपस्थित थे। दुर्जय रावण परशु कन्धे पर रख निर्भय एकाकी ही यज्ञ - भूमि में जा धमका और बोला, “मैं सप्तद्वीपों का अधीश्वर पौलस्त्य रावण हूं। नृवंश में एक वैदिक रक्ष- संस्कृति की स्थापना करने के लिए मैंने सार्वभौम अभियान किया है । अब जो मेरी रक्ष संस्कृति को स्वीकार करता है , उसे अभय; जो नहीं स्वीकार करता है उसके मस्तक पर मेरा यह परशु है । ” रावण के ऐसे गर्व- भरे, अकल्पित , अतर्कित वचन सुनकर सभी मरुद्गण और देवगण स्तम्भित रह गए । रावण की दुर्धर्ष चतुरंग चमू की सूचना उन्हें मिल गई थी । इससे उन्हें भीति भी हुई। इसके अतिरिक्त यह यज्ञ का काल था । रावण के ये वचन सुनकर मरुतों के प्रमुख ने कहा “ अरे पौलस्त्य , तू विज्ञ दीखता है, पर अभिमानी पुरुष की भांति बातें करता है । क्या विश्व में तू ही एक वीर पुरुष है? " _ “इसका निर्णय तो यह परशु करता है, अभी मैंने अपने बड़े भाई कुबेर धनपति का इसी से पराभव किया है तथा इक्ष्वाकु अनरण्य का इसी परशु से शिरच्छेद किया है , जिसका रक्त भी अभी सूखा नहीं है। " मरुतों के प्रमुख ने कहा , “ शान्तं पापम् ! बड़े भाई का पराभव और वृद्ध मानव अनरण्य का वध ! अरे वैश्रवण, तू तो अधर्म करता आ रहा है, क्या संसार में अधर्म करके भी कोई यशभागी बना है ? परन्तु इस प्रलाप से क्या ? तू यदि हम मरुद्णों से युद्ध ही चाहता है तो खड़ा रह, मैं तुझे यहां से जीवित नहीं जाने दूंगा । " यह कहकर मरुतों का स्वामी खड्गहस्त हो यज्ञोपवीत पहने हुए ही यज्ञासन से उठ खड़ा हुआ । अन्य मरुद्गणों ने भी खड्ग खींच लिए। देवों ने भी धनुषों पर बाण - संधान किए । रावण हुंकारकर परशु घुमाने लगा, परन्तु इसी समय महर्षि संवर्त ने उसके निकट आकर स्नेह से रावण के सिर पर हाथ रखा और कहा - “ आयुष्मान् रावण , मैं तेरे पिता विश्रवा मुनि का गुरुभाई और सखा हूं । तुझे देखकर सम्प्रहर्षित हूं , मरुद्ण इस समय माहेश्वर यज्ञ में दीक्षित हैं , तू भी तो माहेश्वर है । सो पुत्र , इस समय धर्म - क्षण में यह विग्रह ठीक नहीं। इसमें देव - अवज्ञा होगी । ” फिर उसने मरुतों के प्रमुख से कहा - “ यज्ञ दीक्षा में प्रविष्ट पुरुष को युद्ध और क्रोध से दूर ही रहना उचित है, इसलिए रावण के पराक्रम और यज्ञ के भार को समझकर आप भी शस्त्र त्याग दें तथा सब मरुत् और देव शान्त हो जाएं । " इसी समय रावण के मन्त्री शुक ने उच्च स्वर से पुकारकर कहा - “ मैं राक्षसों का मन्त्री शुक पुकारकर घोषित करता हूं यहां बैठे सब मरुद्गण और देवगण सुनें कि वैश्रवण पौलस्त्य रावण - सप्त द्वीपों का अधिपति लंकेश यहां उपस्थित है। मैं उसकी विजय - घोषणा करता हूं, जिसे विरोध हो , वह शस्त्र ले! " परन्तु ऋषिवर संवर्त के संकेत से सब मरुद्गण और देवेन्द्र -सहित देवगण चुपचाप बैठे रहे। रावण उसी प्रकार यज्ञस्थल से चला गया ।
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